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________________ विचारणीय दिगम्बरत्व को कैसे छला जा रहा है? -पद्मचन्द्र शास्त्री "भरते हैं मेरी आह को वोह ग्रामोफोन में। कहते हैं फीस लीजिए और आह कीजिये।।" हम ‘अनेकान्त' में पहले लिख चुके हैं कि हमारे परमपूज्य मूल आचार्य पद्मनन्दि आचार्य (कुन्दकुन्द) स्वयं ही सीमंधर रहे। कुन्दकुन्द की विदेह के सीमंधर तीर्थंकर के पास जाने की कल्पना निराधार है और कुन्दकुन्द ने स्वयं भी कहीं उनका स्मरण नहीं किया है-वे बारम्बार श्रुतकेवली का ही उपकार मानते रहे हैं। फलतः उनके विदेह गमन की किंवदन्ती मात्र रही जो क्रमशः भिन्न-भिन्न कल्पित विरोधी कथाओं से गढ़ी जाती रही। हमें दर्शनसार की गाथा देखने में आयी। स्वयं देवसेनाचार्य ने लिखा है कि दर्शनसार संग्रह ग्रंथ है, उनका स्वयं रचित नहीं। उन्होंने संग्रह कहाँ से किया है इसका भी प्रमाण देखने में नहीं आया। तथाहि "पुवायरियकयाइं गाहाइं संचिऊण एयत्थ। सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण।। रइओ दसणसारो हारो भव्वाण णवसएणवए। सिरि पासणागेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए।।" -(दर्शनसार-49-50) अर्थात् पूर्वाचार्यों द्वारा कही गयीं गाथाओं को इकट्ठा करके धारा में रहते हुए श्री देवसेन गणि के द्वारा भव्यजीवों के हाररूप दर्शनसार सं.-909 माघ सुदी दशमी को प्रसिद्ध पार्श्वनाथ मंदिर में रचा गया। ___ उक्त कथन से स्पष्ट है कि दर्शनसार ग्रंथ देवसेन गणि की मौलिक रचना न होकर पूर्व किन्हीं भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा रचित गाथाओं का संकलित ग्रंथ है। जिसे लोगों ने देवसेन का स्वरचित मानकर प्रामाणिकता दे दी है। इसी आधार पर निम्न गाथा
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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