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अनेकान्त-57/1-2
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इस विषय में मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि इन ग्रंथकारों के सामने मूल सिद्धान्तग्रंथ और उनकी प्राचीन टीकाएँ तो क्या धवल और जयधवल ग्रंथ तक मौजूद नहीं थे और इसलिये इन्होंने इस विषय में जो कुछ लिखा है वह सब प्रायः किंवदन्तियों अथवा सुने-सुनाये आधार पर लिखा जान पड़ता है। यही वजह है कि धवल-जयधवल के उल्लेखों से इनके उल्लेखों में कितनी ही बातों का अन्तर पाया जाता है, जिसका कुछ परिचय पाठकों को अनेकान्त के द्वितीय वर्ष की प्रथम किरण के पृष्ठ 7,8 को देखने से मालूम हो सकता है और कुछ परिचय इस लेख में आगे दिये हुए फुटनोटों आदि से भी जाना जा सकेगा। ऐसी हालत में इन ग्रंथों की बहिरंग साक्षी को खुद धवलादिक की अंतरंग साक्षी पर कोई महत्व नहीं दिया जा सकता। अन्तरंग-परीक्षण से जो बात उपलब्ध होती है वही ठीक जान पड़ती है।
षट्खण्डागम और कषायप्राभृत की उत्पत्ति अब यह बतलाया जाता है कि धवल के मूलाधार-भूत ‘षखंडागम' की और जयधवल के मूलाधाररूप 'कषायप्राभृत' की उत्पत्ति कैसे हुई कब किस आचार्य-महोदय ने इनमें से किस ग्रंथ का निर्माण किया और उन्हें तद्विषयक ज्ञान कहाँ से अथवा किस क्रम से (गुरुपरम्परा से) प्राप्त हुआ। यह सब वर्णन अथवा ग्रंथावतार कथन यहाँ धवल और जयधवल के आधार पर उनके वर्णनानुसार ही दिया जाता है। __धवल के शुरू में, कर्ता के 'अर्थकर्ता' और 'ग्रन्थकर्ता' ऐसे दो भेद करके, केवलज्ञानी भगवान महावीर को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-रूप से अर्थकर्ता प्रतिपादित किया है और उसकी प्रमाणता में कुछ प्राचीन पद्यों को भी उद्धृत किया है। महावीर-द्वारा-कथित अर्थ को गोतम गोत्री ब्राह्मणोत्तम गौतम ने अवधारित किया, जिसका नाम इन्द्रभूति था। यह गौतम सम्पूर्ण दुःश्रुति का पारगामी था, जीवाजीव-विषयक सन्देह के निवारणार्थ श्रीवर्धमान महावीर के पास गया था
और उनका शिष्य बन गया था। उसे वहीं पर उसी समय क्षयोपशम-जनित निर्मल ज्ञान-चतुष्टय की प्राप्ति हो गई थी। इस प्रकार भाव-श्रुत पर्याय-रूप परिणत हुए इन्द्रभूति गौतम ने महावीर कथित अर्थ की बारह अंगों-चौदह पूर्वो