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________________ 116 अनेकान्त-57/1-2 त्ति वग्गणसुत्तादो णव्वदे।" __ ये वाक्य यद्यपि धवलादि सम्बन्धी मेरी उस नोट्सबुक में नोट किये हुए नहीं है जिसके आधार पर यह सब परिचय लिखा जा रहा है, और इससे मुझे इनकी जाँच का और इनके पूर्वापर सम्बन्ध को मालूम करके यथेष्ट विचार करने का अवसर नहीं मिल सका; फिर भी सोनीजी इन वाक्यों में उल्लेखित प्रथम दो वर्गणासूत्रों का 'प्रकृत' अनुयोगद्वार में और तीसरे का 'बन्धनीय' अधिकार में जो पाया जाना लिखते हैं उस पर मुझे सन्देह करने की जरूरत नहीं है। परन्तु इस पाये जाने मात्र से ही 'प्रकृत' अनुयोगद्वार और 'बन्धनीय' अधिकार वर्गणाखण्ड नहीं हो जाते। क्योंकि प्रथम तो ये अधिकार और इनके साथ के फासादि अधिकार वर्गणाखण्ड के कोई अंग नहीं हैं, यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है-इनमें से किसी के भी शुरू, मध्य या अन्त में इन्हें वर्गणाखंड नहीं लिखा, अन्त के 'बन्धनीय' अधिकार को समाप्त करते हुए भी इतना ही लिखा है कि "एवमोगाहणप्पाबहुए सुवुत्ते बंधणिज्जं समत्तं होदि।" दूसरे, 'वर्गणासूत्र' का अभिप्राय वर्गणाखंड का सूत्र नहीं किन्तु वर्गणाविषयक सूत्र है। वर्गणा का विषय अनेक खंडों तथा अनुयोगद्वारों में आया है, 'वेदना' नाम के अनुयोगद्वार में भी वह पाया जाता है- “वग्गणपरूवणा" नाम का उसमें एक अवान्तरान्तर अधिकार है। उस अधिकार का कोई सूत्र यदि वर्गणासूत्र के नाम से कहीं उल्लेखित हो तो क्या सोनीजी उस अधिकार अथवा वेदना अनुयोगद्वार को ही 'वर्गणाखंड' कहना उचित समझेंगे? यदि नहीं तो फिर उक्त वर्गणासूत्रों के प्रकृति आदि अनुयोगद्वार में पाये जाने मात्र से उन अनुयोगद्वारों को 'वर्गणाखंड' कहना कैसे उचित हो सकता है? कदापि नहीं। अतः सोनीजी का उक्त वर्गणासूत्रों के उल्लेख पर से यह नतीजा निकालना कि “यही वर्गणाखंड है-इससे जुदा और कोई वर्गणाखंड नहीं है" जरा भी तर्कसंगत मालूम नहीं होता। यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि षट्खण्डागम के उपलब्ध चार खंडों में सैकड़ों सूत्र ऐसे हैं जो अनेक खंडों तथा एक खंड के अनेक अनुयोगद्वारों में ज्यों के त्यों अथवा कुछ पाठभेद के साथ पाये जाते
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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