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अनेकान्त-57/1-2
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उनका सामान्य नाम वर्गणाखण्ड है। यदि ऐसा न होता तो आचार्य 'प्रकृति' अनुयोगद्वार को वर्गणाखण्ड के नाम से न लिखते।"
कितना बढ़िया अथवा विलक्षण यह तर्क है, इस पर विज्ञ पाठक जरा गौर करें! सोनीजी प्रकृति (पयडि) अनुयोगद्वार को 'वर्गणाखण्ड' का अंग सिद्ध करने की धुन में वर्गणाखण्ड के स्पष्ट उल्लेख को भी 'प्रकृति' अनुयोगद्वार का उल्लेख बतलाते हैं और यहाँ तक कहने का साहस करते हैं कि खुद जयधवलाकार आचार्य ने 'प्रकृति' अनुयोगद्वार को वर्गणाखण्ड के नाम से उल्लेखित किया है! इसी का नाम अतिसाहस है! क्या एक विषय का वर्णन अनेक ग्रंथों में नहीं पाया जाता? यदि पाया जाता है तो फिर एक ग्रन्थ का नाम लेकर यदि कोई उल्लेख करता है तो उसे दूसरे ग्रन्थ का उल्लेख क्यों समझा जाय? इसके सिवाय, यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है कि वर्गणाखण्ड की आदि में भूतबलि आचार्य ने मंगलाचरण किया है और जिन 'फास' आदि चार अनुयोगद्वारों को 'वर्गणाखण्ड' बतलाया जाता है उनमें से किसी की भी आदि में कोई मंगलाचरण नहीं है, इससे वे 'वर्गणाखण्ड' नहीं हैं किन्तु 'वेदनाखण्ड' के ही अधिकार हैं, जिनके क्रमशः कथन की ग्रंथ में सूचना की गई है। (घ) चौथी बात है कुछ वर्गणासूत्रों के उल्लेख की। सोनीजी ने
वेदनाखण्ड के शुरू में दिये हुए मंगलसूत्रों की व्याख्या में से निम्नलिखित तीन वाक्यों को उद्धृत किया है, जो वर्गणासूत्रों के
उल्लेख को लिये हुए हैं"ओहिणाणावरणस्स असंखेन्जमेत्ताओ चेव पयडीओ त्ति वग्गणसुत्तादो।"
"कालो चउण्ण उड्ढी कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए वुड्ढीए दब्बपज्जय भजिदब्बो खेत्तकाला दु।।
एदम्हादो वग्गणसुत्तादो णव्वदे।"
"आहारवग्गणाए दव्वा थोवा, तेयावग्गणाए दव्वा अणंतगुणा, भासावग्गणाए दव्वा अणंतगुणा, मण. दव्वा अणंतगुणा, कम्मइय अणंतगुणा