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अनेकान्त-57/1-2
सातवें से 10वें गुणस्थान तक अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्मराग होता है, जो इससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होता है। केवल यही विचार कर किन्हीं आचार्यो ने असद्भूत व्यवहार नय से जिस प्रकार छठे गुणस्थान तक के ज्ञान को रागयुक्त कहा है, उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी रागयुक्त कहा है।
सन्दर्भ
1. तद् द्विविधं सराग वीतराग विषय भेदात्। प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याहि अभिव्यक्ति लक्षणं
प्रथमम्। आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्। 2 मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. 261-264 3 पञ्चाध्यायी 2/426-430 4. पञ्चास्तिकाय -गाथा-137 5 पञ्चाध्यायी 2/431-445 6. पञ्चास्तिकाय-137 (अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित समय व्याख्या) 7. पञ्चास्तिकाय - गाथा-137 (जयसेनाचार्यकृत टीका) 8. पञ्चाध्यायी 2/446-451 9. सप्तानां कर्मप्रकृतीनां आत्यन्तिके अपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते।।
तत्त्वार्थवार्तिक 1/2/31/22/11 10. भगवती आराधना-विजयोदया टीका 51/175/18, 21 11. समयसार तात्पर्यवृत्ति 97/125/13 12. अमितगति श्रावकाचार 2/65 13. द्रव्यसंग्रह टीका 41/168/2 14. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - भाग-4 पृष्ठ 361 15. पञ्चाध्यायी (उत्तराद्ध)-912
-जैन मन्दिर के पास
बिजनौर, उ.प्र.