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________________ अनेकान्त-57/1-2 जैन ग्रन्थों में इस छन्द का अन्यत्र भी प्रयोग हुआ है। वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित के पञ्चम सर्ग के 110 श्लोकों में तथा षष्ठ सर्ग के 5,9,84,106,116 इन पाँच श्लोकों में इस छन्द का प्रयोग हुआ है। इस छन्द में वियोगिनी छन्द के समपादों में एक गुरू और बढ़ जाता है। (ड.) प्रस्तावना – किसी ग्रन्थ की प्रस्तावना भवन की नींव के समान होती है। पं. जी ने पद्मपुराण की प्रस्तावना में आधार प्रतियों के परिचय के साथ रामकथा की विभिन्न धाराओं का संक्षिप्त उल्लेख करके जैन रामकथा के वैविध्य का निरूपण कर दिया है तथा पद्मचरित एवं आचार्य रविषेण का परिचय भी प्रस्तुत कर दिया है। अतः प्रस्तुत संस्करण पूर्णतया उपयोगी बन गया है। हाँ कहीं-कहीं प्रस्तावना की भाषा चिन्त्य है। यथा- 'भारतीय ज्ञानपीठ के संचालको को मेरी यह बात पसन्द पड़ गयी।' 10 (च) परिशिष्ट – परिशिष्ट में श्लोकानुक्रमाणिका का होना शोधार्थियों को यह विशेष लाभदायक हो गया है। यदि हरिवंशपुराणादि ग्रन्थों की तरह शब्दानुक्रमाणिका देकर पारिभाषिक शब्दों के अर्थ भी स्पष्ट कर दिये जाते तो यह ग्रन्थ और अधिक उपयोगी बन सकता था। क्योंकि जैन दर्शन के अनभ्यस्त पाठकों के लिए पुद्गल, गुप्ति, समिति, निदान आदि शब्दों का अर्थ समझना आपाततः दुरूह है तथा अनुवाद में इसका स्पष्टीकरण संभव भी नही है। (छ) हिन्दी अनुवाद - पद्मपुराण का पं. पन्नालालजीकृत हिन्दी अनुवाद सहृदय-संवेद्य श्लोकार्थ है, जो श्लोकों के धर्य को प्रकट करने में समर्थ है। पं. जी ने ग्यारहवें पर्व के तीन-चार दार्शनिक श्लोकों का अर्थ करने में श्री पं. फूलचन्द्र शास्त्री की सहायता ली थी। इसका उन्होंने सादर उल्लेख किया है। ।। अनुवाद की रोचकता पाठकों को लगातार पढ़ने की इच्छा उत्पन्न करती तो असंस्कृत भी इसका आनन्द ले पाते। __ संक्षेप में पद्मपुराण का यह संस्करण विद्वान् मनीषियों, शोधार्थियों तथा स्वाध्यायप्रेमियों सभी की आवश्यकता के अनुरूप है। नयनाभिरामता से संग्राहकों के योग्य भी है।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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