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अनेकान्त-56/1-2
जैनवाड्मय में सामरस्यभाव, बाह्याचार का निरसन, प्रतीको एवं रहस्यवादी शब्दावली के द्वारा चित्तशुद्धि का निरूपण और परमात्मपद की प्राप्ति आदि रहस्यवादी तत्त्व प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं। जैन रहस्यवाद का स्वरूप
आत्मानुभूति द्वारा स्व को शुद्ध, बुद्ध और ज्ञानरूप अनुभव करते हुए श्रद्धा, ज्ञान एव चारित्र द्वारा परमशुद्ध परमात्म तत्त्व से मिलन की क्रिया ही रहस्यवाद या रहस्यमार्ग है। __ जैन दृष्टि से विशुद्ध चेतनस्वरूप की उपलब्धि ही रहस्यवाद का साध्य है। शुद्ध परमात्मतत्त्व के साथ अपनी एकता का स्पष्ट सवेदन रहस्यवाद है। इस सवेदन में रत्नत्रय की उत्तरोत्तर विशुद्धि बढ़ती जाती है और आत्मा स्वयं ही परमात्मा बन जाता है। जैन रहस्यवाद मे उपनिषद् के समान ही गुह्यातिगुह्य परमतत्त्व की खोज और प्रत्यक्षीकरण का प्रयास दिखलाई देता है। किन्तु जैनों का परमात्मा न तो अद्वैत है न सृष्टिकर्ता।'
जैनाचार्यों ने प्रत्येक आत्मा को शक्ति की अपेक्षा परमात्मा के समान बताया है। इनके अनुसार जीवात्मा से परमात्मा भिन्न नही है। कर्मबद्ध आत्मा आत्मा कहलाता है। और कर्ममुक्त परमात्मा। रहस्यवाद की प्रक्रिया में आत्मा स्वानुभूति के द्वारा द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्मो का विनाश कर परमात्म पद को प्राप्त कर लेता है। इस दर्शन में आत्मा एक नही अनेक हैं। सभी आत्माएं परमात्मा बन सकती है। परमात्मा बनने की प्रक्रिया साधना मार्ग है, इस साधना को योगमार्ग भी कहा जा सकता है। जैन मान्यता के अनुसार आत्मानुभूति अलौकिक होती है। इसकी तुलना ससार की किसी वस्तु से नही की जा सकती। साधना मार्ग
जैन दर्शन में रत्नत्रय को साधना मार्ग कहा है। इस मार्ग की तीन कड़िया हैं-सम्यकदर्शन सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र। सम्यकदर्शन आत्मसत्ता की आस्था है। मै कौन हूं? क्या हूँ? कैसा हू? इसका निश्चय ही सम्यक दर्शन है।