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जैन रहस्यवाद
-डॉ. श्रीमती सूरजमुखी जैन 'रहस्यवाद' शब्द रहस्य और वाद इन दो शब्दों के संयोग से निष्पन्न हआ है। 'रहस्य' शब्द से यत् प्रत्यय करने पर 'रहसि भवं रहस्यम्' की सिद्धि होती है। 'रह' धातु त्याग अर्थ में प्रयुक्त होती है। अत: रहस्य का अर्थ है अन्य प्रमेयों का त्याग। प्रमेयान्तरों के त्याग द्वारा विषयासंपृक्त मनोभूमि मे होने वाली प्रतीति अथवा प्रतीयमान सत्ता ही 'रहस्य' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। 'वाद' शब्द 'वद्' धातु से धञ् प्रत्यय करने पर बनता है। 'उच्यतेऽनेनेति वादः' अर्थात् जिसके द्वारा कुछ कहा जाय, वह वाद है। अतः व्युत्पत्ति के अनुसार 'रहस्यवाद' वह वाद है जिसमे उन वातो का कथन हो, जिन्हे सब लोग नही जानते है। ___ 'रहस्यवाद' एक विशेष प्रकार की काव्यधारा है जिसमें रचयिता या कवि जीवन और जगत के व्यक्त क्षेत्र से हटकर उसके अव्यक्त पक्ष का उद्घाटन करता है और दृश्य जगत के विविध नामरूपो में व्याप्त अगोचर तत्त्व की भावात्मक प्रणालियों द्वारा अभिव्यक्ति करता है। रहस्यवादी काव्य की प्रमुख विशेषता भाव के द्वारा किसी परोक्ष सत्ता का आभास उसके प्रति राग विस्मय, जिज्ञासा, लालसा, असीम वेदना एवं तादात्म्य की अनुभूति है। यह अनुभूति दिव्यानुभूति है क्योकि इसका संबन्ध अलौकि शक्ति से है।
वस्तुतः रहस्यवाद अध्यात्मवाद की पर्याय है। प्राचीनकाल में आचार्यो, कवियों और मुनियों ने जिस रहस्यवाद का प्रतिपादन किया था वही अध्यात्मवाद काव्य में रस का संपर्क प्राप्त कर रहस्यवाद बन गया है। अध्यात्मवाद केवल साधनामूलक और ज्ञानमूलक होता है, किन्तु रहस्यवाद भक्ति और साधनामूलक। भक्ति मिश्रित साधना का सम्पर्क प्राप्त कर ज्ञानमूलक शुष्क चर्चाएं सरस रहस्यवाद के रूप में परिणत हो जाती हैं।