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अनेकान्त-56/1-2
(2) हेतु
का विवेक नही रख पाता है।
उक्त सिद्धि में तत्त्वार्थसूत्रकार ने अनुमान के तीनों अवयवों - पक्ष, हेतु तथा उदाहरण को दो सूत्रो मे उपस्थित किया है तथा इस आधार पर मति आदि तीन ज्ञानों को विपरीत/प्रमाणाभास भी सिद्ध किया है। यथा(1) पक्ष (प्रतिज्ञा) - मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।
- सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेः (3) उदाहरण - उन्मत्तवत्।
यहाँ यह अवधेय है कि जहाँ न्याय दर्शन मे अनुमान प्रमाण के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एव निगमन इन पञ्चावयव वाक्यों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन मे अनुमान के लिए तीन अवयव ही अनिवार्य माने हैं। तत्त्वार्थसूत्र मे अन्यत्र भी तीन अवयवों का ही वस्तु की अनुमानतः सिद्धि मे उपयोग किया गया है। प्रमाण के भेद
अश-अशी (धर्म-धर्मी) का भेद किये बिना वस्तु का ज्ञान प्रमाण कहा गया है। यह बात पाँचो ज्ञानो में पाई जाती है। अतः पाँचों ही ज्ञान प्रमाण है किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के इन ज्ञानो को दो प्रमाण रूप कहकर आदि के दो मतिज्ञान एवं श्रुत ज्ञान को परोक्ष तथा शेष अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान एव केवलज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। मति एवं श्रुत दो ज्ञानों को परोक्ष मानने का कारण यह है कि ये दो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं। शेष तीन ज्ञान इनकी सहायता के बिना आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होते है।
जैनेतर भारतीय दर्शनों में अक्ष का अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा शेष ज्ञानों को परोक्ष माना गया है। किन्तु इस लक्षण के अनुसार योगियो का ज्ञान प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि वह ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना ही होता है। उसे मानना तो जैनेतर दार्शनिकों को भी अभीष्ट नही है। अतएव अक्ष शब्द का आत्मा अर्थ मानकर तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा आत्मा