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________________ अनेकान्त-56/1-2 59 दृष्टि को उजागर करने का श्रेय उन्हें प्राप्त है। श्रुतधर आचार्यों की परम्परा मे उनको प्रमुख माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण उनकी उत्तरवर्ती परम्परा मूल संघ और कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा का कहलाने मे गौरव अनुभव करती है। जैन धर्म का सुप्रसिद्ध एक श्लोक आचार्य कुन्दकुन्द के नाम के साथ स्मरण किया जाता है। वह श्लोक इस प्रकार है मंगल भगवान वीरो, मंगल गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोस्तु मंगलम्॥ जीवन वृत्त- आचार्य कुन्दकुन्द प्रथम शताब्दी ई. के आचार्य थे। इनका जन्मस्थान दक्षिण भारत में कौण्डकुण्डपुर नामक स्थान बताया गया है। इनके पिता करमण्डु तथा मात्रा श्रीमती थी। आचार्य कुन्दकुन्द के चार और नाम भी प्राप्त होते हैं यथा-पद्मनन्दी, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छ। आचार्य कुन्दकुन्द की गुरूपरम्परा के सम्बन्ध मे सर्वसम्मत एक विचार प्राप्त नहीं है। बोधपाहुड के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द के दीक्षा गुरू भद्रबाहु थे।' जबकि शिक्षागुरू जिनसेन आचार्य को माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के समय के बारे में सभी विद्वान एकमत नही हैं। प. नाथूराम प्रेमी ने तृतीय शताब्दी तथा डॉ. के. बी. पाठक ने शक सवत 450 के लगभग माना है। डॉ. नेमिचंद शास्त्री ने ईसवी सन् की प्रथम शताबदी माना है। इनके समय के बारे में अनेक मतो के आधार पर डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने समीक्षात्मक रूप से यह निष्कर्ष उपस्थित किया है कि All this shows that he may safely be assigned to be early part of the First Century A.D. or to be exat to 8 B.C.-A.D. 44) (The Jain Sources of the History of Ancient India Page 124-125) वे दुर्गम वाटियों और वनों में भी निर्भीक भाव से विचरण करते थे। उसके पास तप का तेज था और साधना का बल था। उनका चिंतन अध्यात्म प्रधान था। कहा जाता है कि ये एक बार सीमंधर स्वामी के समवशरण में भी विदेह गमन किये थे। साहित्य- अध्यात्म की भूमिका पर रचित आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथ रत्न
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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