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प्रस्तुत किया गया है। ग्यारहवे अध्याय मे शास्त्रीय प्राकृत साहित्य के अन्तर्गत अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योतिपशास्त्र, वास्तुशास्त्र आदि के ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। इसी अध्याय में प्राकृत के हाथीगुंफा और नासिक के शिलालेखो का सक्षिप्त ब्योरा भी प्रस्तुत है। । ___अन्त में परिशिष्ट-1 के अन्तर्गत प्राकृत ग्रन्थों के कुछ विशिष्ट शब्दो को सूची मूल प्राकृत एवं हिन्दी अनुवाद के साथ दी गई है। परिशिष्ट-2 मे अलकार ग्रन्थों में उपलब्ध प्राकृत के प्रायः पाँच सौ पद्य हिन्दी अनुवाद के साथ दिये गये हैं। सहायक ग्रन्थो की सूची तथा ससन्दर्भ विस्तृत शब्दानुक्रमणिका भी ग्रन्थ के अन्त में समायोजित है।
उक्त ग्रन्थ मे ई. पू. 5वी शती से लेकर 1800 ई. तक अर्थात् लगभग 2300 वर्षों में लिखे एवं सकलित किये गये तीन सौ से अधिक प्राकृत ग्रन्थो का समीक्षात्मक तथा सिलसिले बार विवरण पहली बार प्रस्तुत किया गया है। इसलिए उक्त ग्रन्थ विशेषरूप से महत्वपूर्ण है। यह भी संयोग ही है कि डॉ जैन ने प्राकृत जैनशास्त्र और अहिसा शोध संस्थान, वैशाली के प्राकृतिक एव सुरम्य वातावरण मे लगभग एक वर्ष तक लगातार कठिन परिश्रम करके पहला प्राकृत साहित्य का इतिहास लिखा। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-2
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध सस्थान, वाराणसी ने अनेक भागा में "जन साहित्य का वृहद् इतिहास'' विशेषज्ञ विद्वानो से तैयार करवाकर प्रकाशित करने की योजना प्रस्सावित की थी। उसी योजना के अन्तर्गत दुसरे भाग के लेखन का दायित्व डॉ. जगदीशचन्द्र जैन एव डॉ. मोहनलाल महता को सौपा गया था, जिसे उक्त विद्वानों ने पूरी जिम्मेदारी से निभाया। दूसरे भाग मे अगवाह्य आगमा का विस्तृत और आलोचनात्मक परिचय दिया गया है। लेखन के सम्बन्ध में डॉ. मेहता ने ग्रन्थ के प्राक्कथन में स्वयं लिखा है----"प्रस्तुत भाग का उपांग एवं मूलसूत्र विभाग यशस्वी विद्वान डॉ. जगदीशचन्द्र का लिखा हुआ है तथा शेष अंश मैंने लिखा है।'' (पृ. 5)
औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, निरयावलिका या कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका