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अनेकान्त - 56/1-2
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17-18)1
(5) जो साधु स्त्रियों से निरन्तर राग- प्रीति बनाये रखते हैं, निर्दोष जनों पर दोष लगाते हैं, गृहस्थों और शिष्यों में बहुत स्नेह रखते हैं, गुरु आदि की विनय एवं साधु-क्रियाओं से रहित होते हैं, वे श्रमण न हो कर तिर्यञ्चयोनिज हैं, अज्ञानी है (लिंगपाहुड 17-18)।
पशु एवं
(6) भावरहित साधु पापस्वरूप एवं तिर्यचयोनि में निवास करता 74)1
(भावपाहुड
अनन्त संसारी साधु
(1) जो साधु दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र का सेवन नहीं करता; किन्तु परिग्रह विषय-कषाय में आर्तध्यान करता है, वह अनन्त संसारी है ( लिंगपाहुड 8 ) ।
(2) जो साधु आहार के लिए दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर आहार भोगता है, खाता है और उसके निमित्त अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है, वह जिन श्रमण नहीं है (लिंगपाहुड 13 ) ।
(3) जो बिना दिया आहार, दान आदि लेता है और परोक्ष पर के दोषों से पर की निन्दा करता है, वह श्रमण चोर के समान है ( लिंगपाहुड 14 ) ।
(4) जो साधु स्त्रियों के समूह में उसका विश्वास करके और उनमें विश्वास उत्पन्न करके दर्शन, ज्ञान, चारित्र देता है, उन्हे सम्यक्त्व बताता है, पढ़ाता है, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, स्त्रियों में प्रवृत्त होता है और व्यभिचारी स्त्री के घर आहार लेता है उसकी प्रशंसा करता है; ऐसा भाव से विनष्ट साधु पार्श्वस्थ अर्थात् भ्रष्ट से भ्रष्ट है; वह श्रमण तो क्या, नहीं है (लिंगपाहुड 20-21)।
मनुष्य भी
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिनचिह्न धारण कर उक्त अनुपयुक्त क्रियाओं को करने वाले साधु भले ही बहुत सारे शास्त्रों के ज्ञाता हों और भावचिह्न साधुओं के साथ रहते हों तो भी वे भाव से नष्ट ही हैं और साधु नहीं हैं (लिंगपाहुड 19 ) | लिंगपाहुड के अन्त में आचार्य कहते हैं कि जो 'साधु गणधरादि द्वारा उपदिष्ट वास्तविक धर्म को यत्नपूर्वक धारण करते हैं