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________________ 24 अनेकान्त-56/1-2 स्वच्छन्द होकर स्त्री-संसर्ग, विषय-कार्यो की पुष्टि, शरीर-संस्कार, गृहस्थोचित कार्य एवं परिग्रह के प्रति ममत्व रखते हुए लौकिक कार्यों में रुचिवान् होते हैं। नरकगामी जिनेतर-चिह्नी साधु(1) जो साधु बहुत मान कषाय करता हुआ निरन्तर कलह वाद-विवाद, द्यूत-क्रीड़ा, अब्रह्म (भोग-विलास) सेवन करता है, वह पापी नरकगामी होता है (लिंगपाहुड 6-7)। (2) जो साधु गृहस्थो के विवाहादि कार्य करता है, कृषि-व्यापार एवं जीवघात आदि पाप कार्य करता है, चोरी, झूठ, युद्ध, विवाद करता है, यंत्र, चौपड़, शतरंज, पासा आदि क्रीड़ाएँ करता है, वह नरकगामी होता है (लिंगपाहुड 9-10)। (3) जो साधु सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र, तप, संयम, नियम आदि की क्रियाए बाध्यतापूर्वक या खिन्न मन से पीड़ायुक्त भावना से करता है वह नरकगामी होता है (लिंगपाहुड 11)। तिर्यञ्च-तुल्य साधु(1) जो साधु पाप बुद्धि से मोहित हो कर बाह्य कुक्रिया करता है, वह जिनचिह्न का उपहास करता है (लिंगपाहुड 3)। (2) जो साधु नृत्य करता है, गाता है, बजाता है, परिग्रह का सग्रह करता है या परिग्रह का चिन्तन एवं ममत्व रखता है वह पाप से मोहित बुद्धि वाला तिर्यञ्चयोनि पशु है, श्रमण नहीं है (लिंगपाहुड 4-5)। (3) जो साधु भोजन में अति आसक्ति रखते है, कामवासना की इच्छा रखते हैं, मायावी हो कर व्यभिचार-रूप प्रवृत्ति करते है, प्रमादी होते हैं, वे तिर्यञ्चयोनि पशु-तुल्य होते हैं; ऐसे साधुओं से गृहस्थ श्रेष्ठ होते हैं (लिंगपाहुड 12)। (4) जो साधु ईर्या समिति-पूर्वक नहीं चलते, दौड़ कर चलते हैं, पृथ्वी खोदते हैं, वनस्पति आदि की हिंसा करते हैं, अनाज कूटते हैं, वृक्षों को छेटते-काटते हैं, वे तिर्यञ्चयोनि हैं, पशु एवं अज्ञानी हैं, श्रमण नहीं हैं (लिंगपाहुड
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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