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जैन साधु : कौन नग्न - कौन भग्न
_ -डॉ. राजेन्द्र कुमार बसल जैन संस्कृति के अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर ने ससार के जीवो को आत्म-विकारों का परिहार कर ज्ञान-आनन्द स्वरूप शुद्धात्म की प्राप्ति का मार्ग बताया। जिनवरों का यह मार्ग वीतरागता की प्राप्ति का मार्ग कहलाता है। जिनवर अंतर से वीतरागी हो कर निज स्वभाव में लीन रहते है जबकि उनका बाह्य भेष नवजात शिशु के समान निर्विकार-नग्न होता है। इस बाह्य भेष को ही जिनमुद्रा, जिनलिंग था जिनचिन्ह कहते हैं। जिनचिन्ह का स्वरूपइस मार्ग के पथिकों के स्तर की पहिचान के दो संकेत है; पहला आन्तरिक (भावलिंग), दूसरा बाह्य (द्रव्यलिंग)। आचार्यकुन्दकुन्द ने इन चिह्नो के अलावा अन्य चिह्नों को जिनेतर (कुलिग) कहा है। सुविधा की दृष्टि से इस लेख मे भावलिग को 'भावचिह्न', द्रव्यलिग को 'द्रव्यचिह्न' एवं कलिंग को 'जिनेतर चिह्न' के रूप में वर्णित किया गया है।
भावचिह्न अंतरंग परिणामों अथवा वीतराग भावों का सूचक है, जो अकषाय भाव या कषायहीनता के अशों के होने का द्योतक है। यह परम परिणामिक भाव के आश्रय से आत्मा के ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव की प्रसिद्धि से ही संभव होता है। द्रव्यचिह्न शरीर का बाह्य भेष है जो अतरंग भावो का प्रतिनिधित्व करता है; किन्तु सर्वथा ऐसा होने का नियम भी नही है, क्योकि भावचिह्न के अभाव में भी द्रव्यचिह्न देखने में आता है। जिनचिह्न धारण कर शरीरादिक विकृत क्रियाएँ एवं परिग्रहादि की अभिलाषा रखने को जिनमार्ग मे 'जिनेतर चिह्न' कहा गया है।
जब अंतरंग वीतराग परिणामों के अनुरूप बाह्य भेष होता है तब ऐसा बाह्य भेष मोक्षमार्ग मे प्रयोजन-भूत एव उपकारक होता है। इस दृष्टि से वीतरागता