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अनेकान्त - 56/1-2
ने स्पष्टीकरण किया। समझाने का इतना सरल ढंग बिरलजनों में ही पाया जाता है । उसी प्रकार के विशेषार्थो के द्वारा आचार्य श्री ने अध्यात्म के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया है, जिससे समयसार तात्पर्यवृत्ति प्रत्येक अध्यात्म जिज्ञासु के लिये अति उपयोगी हो गयी है।
सम्प्रति कुछ कदाग्रही जन गृहस्थावस्था में वीतरागसम्यग्दृष्टि बने हुए हैं, बन रहे हैं उन लोगों की भ्रान्त धारणाओं के उन्मूलन के लिए आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज द्वारा लिखित विशेषार्थ पूर्ण समर्थ हैं क्योकि आचार्य श्री ने तात्पर्यवृत्ति को पूर्ण आत्मसात् करके ही विशेषार्थो के माध्यम से विषयों का स्पष्टीकरण किया है।
आस्रवाधिकार (184-185) में आचार्य श्री जयसेन ने वीतरागसम्यग्दृष्टि के अधिकारी का विशेष स्पष्टीकरण किया है। तात्पर्यवृत्ति निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को आश्रय लेकर लिखी गयी है अतः सम्पूर्ण विषयो का उद्घाटन इससे सहज ही हो जाता है।
आचार्य जयसेन स्वामी का संस्कृत मुहावरों पर असाधारण अधिकार है। उनकी जैन पारिभाषिक शब्दों की उपयोग व्यवस्था स्वाभाविक एवं सरल है। उनका अर्थगर्भित व्याख्याओं तथा संक्षिप्त प्रतिपादन का अपूर्व ज्ञान तात्पर्यवृत्ति में जगह जगह पर परिलक्षित होता है। क्वचित् कदाचित् स्थानों पर तात्पर्यवृत्ति में गद्य की कृत्रिमता भी देखने को मिलती है फिर भी अभिव्यक्ति की धारा अति प्रबल है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि तो कवि हृदय हैं। इनके पद्य भाग की अपेक्षा तात्पर्यवृत्ति का गद्य अत्यन्त सरल सर्वजन बोध्य है। वस्तुतः जयसेन स्वामी ने गद्य में विशिष्टता प्राप्त की है। इन्होंने दार्शनिक विषय वस्तु के उपस्थान के साथ साथ शाब्दिक स्पष्टीकरण पर विशेष ध्यान दिया है। ताप्पर्यवृत्ति ही वस्तुतः कुन्दकुन्द स्वामी के अभिप्रायों को स्फुट करने में सक्षम है क्योंकि जयसेन स्वामी की भाषा सरल और सहानुभूतिपूर्ण है और उनका प्रयास रहा है कि विषय का पूर्ण स्पष्टीकरण हो जिससे सामान्य बुद्धिशील भी विषय का परिज्ञान प्राप्त कर सके। सरलतम संस्कृत में लिखते हुए भी प्रयोजनभूत अर्थ को उद्घाटित करना उनकी प्रतिभा का वैशिष्ट्य है। उन्होंने