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जैनदर्शन में प्रमाण का स्वरूप और उसके भेद
___-डॉ. कपूरचन्द जैन संसार में जितने जीव हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत रहते हैं। दौलतराम जी ने लिखा है
'जे त्रिभुवन में जीव अनन्त सुख चाहें दुःख तें भयवंत।" यद्यपि संसार में क्षणिक सुख दिखाई देता है किन्तु जीव की प्रवृत्ति स्थायी सुख को प्राप्त करने की ओर हो तभी उसका कल्याण हो सकता है। एक साधक साधना में लीन थे। किसी निकट भव्य ने जब उनसे कल्याण का मार्ग पूछा तो अचानक उनके मुख से करुणा वशात् यह सूत्र निकल पड़ा
'सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों से मिलकर मोक्ष का मार्ग है। एक-एक के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस पर से भव्य ने फिर प्रश्न किया सम्यग्दर्शन क्या है? परम दयालु महाराज ने कहा
'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" भव्य ने पुनः प्रश्न किया भगवन् ! तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है यह तो ठीक है, पर वह सम्यग्दर्शन उत्पन्न कैसे होता है वे कौन से तत्त्व हैं, जिन पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। मुनिराज ने कहा हे भव्य! वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अर्थात् उपदेशादि रूप बाह्य निमित्त के बिना और अधिगम अर्थात् उपदेश रूप बाह्य निमित्त से होता है। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप से सम्यग्दर्शन और जीव आदि का न्यास अर्थात् निक्षेप होता है।
'तन्निसर्गादधिगमाद्वा।' 'जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।' 'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः।"