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________________ 66 अनेकान्त-56/3-4 कण्ठ, तालु और मूर्धा के उच्चारण से ही उनकी गतिविधियों को ज्ञात कर लेते थे। सैनिक गुप्तचर शत्रु-राज्य की सैन्य-शक्ति और वहां की जनता का मनोबल तोड़ने का भी प्रयास करते रहते थे। गुप्तचरों की कार्य-शैली गुप्तचरों की सजगता पर ही उस देश की सुरक्षा एवं शान्ति व्यवस्था निर्भर रहती थी। विभिन्न कार्यो के लिए भिन्न-भिन्न गुप्तचर-दस्ते तैयार किये जाते थे, जो एक अधिपति के नेतृत्व में सदैव राज्य की सेवा के लिए तत्पर रहते थे। ये गुप्तचरदल विभिन्न माध्यमों से अपने स्वामी को गुप्त सूचनाएँ प्रेषित करते रहते थे। अनेक अवसरों पर निर्दिष्ट कार्य-हेतु महिला गुप्तचरों की नियुक्ति भी की जाती थी। शत्रु पक्ष का भेद निकालने के लिए गुप्तचरों को विभिन्न कार्यशैलियों को अपनाना होता था। मुद्राराक्षस नाटक में वर्णन आया है कि कहीं कोई गुप्तचर आहिण्डिक (सपेरे) का रूप धारण किये हुए है, कोई क्षपणक (जैन साधु) बनकर विचरण कर रहा है, कोई यम देवता का भक्त बनकर यमपट्ट लिए घूम रहा है तो कोई शत्रुओं का विश्वस्त बनकर और उनसे ही वेतन प्राप्त कर उनका प्रमुख अधिकारी बन गया है। शत्रु-देश तथा शत्र-सेनाओं में भेद लेने के लिए गुप्तचर, शत्रु-सैनिकों के वेश बनाते थे किन्तु अनेक बार भेद खुलने पर पकड़े भी जाते थे, जिस कारण उनको कड़ी यातनाएँ भी सहनी पड़ती थी और कभी-कभी तो उनका वध भी कर दिया जाता था। गुप्तचरों को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता था कि साथ रहने वाला व्यक्ति भी उनको न पहचान सके। गुप्तचर-व्यवस्था इतनी सुव्यस्थित होती थी कि गुप्तचर को भी यह नहीं पता होता था कि वे एक ही व्यक्ति द्वारा नियुक्त किये गये हैं। मुद्राराक्षस के विवरण से ज्ञात होता है कि चाणक्य का गुप्तचर बौद्ध संन्यासी के रूप में नियुक्त जीवसिद्धि, क्षपणक को भी नहीं पहचान सका था कि वे दोनों चाणक्य द्वारा ही नियुक्त थे।" प्राचीन भारतीय गुप्तचर-व्यवस्था निःसन्देह उन्नत तथा विकसित अवस्था में थी। जब तक किसी राज्य की गुप्तचर-व्यवस्था सुदृढ़ और सुव्यवस्थित बनी रही और शत्रु-देश तथा पड़ौसी-राज्य में उसके गुप्तचर सक्रिय रहे, तब तक
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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