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अनेकान्त-56/3-4
श्रावक कहलाता है। वह साधक के उच्च पद को इच्छुक होता है। श्री अभ्रदेव का कहना है कि जो गुरुओं की साक्षी से व्रतों को ग्रहण करके जीवन भी पालता है। इस प्रकार की निष्ठा वाली आत्मा को नैष्ठिक श्रावक कहते हैं।
पाक्षिक श्रावक के विशेष रूप से जिन धर्म का पक्ष होता है, किन्तु कुलाचार के रूप में वह भी व्रतों का पालन तो करता ही है। नैष्ठिक श्रावक में इतनी विशेषता अवश्य होती है कि वह व्रतों का निरतिचार परिपालन करता है, जबकि पाक्षिक श्रावक में कदाचित् दोष लग जाते हैं। पं. आशाधर ने कहा है
"दुर्लेश्याभिभवाज्जातु विषये क्वचिदुत्सुकः।
स्खलन्नापिक्वापि गुणे पाक्षिकः स्यान्न नैष्ठिकः।।।। अभिप्राय यह है कि कष्ण, नील एवं कापोत दर्लेश्याओं में से किसी के वेग से किसी समय इन्द्रिय के विषय में उत्कण्ठित तथा मूल गुण में अतिचार लगाने वाला गृहस्थ पाक्षिक तो हो सकता है, नैष्ठिक ऐसा नही हो सकता है।
व्रतोद्योतन श्रावकाचार में चार निक्षेपों के द्वारा श्रावकों के चार भेद करते हुए कहा गया है कि जिन पुरुषों ने व्रतों को धारण नहीं किया है किन्तु गुरूजनों से व्रत आदि की चर्चा सुनते हैं, वे नाम श्रावक हैं। जो गुरूजनों से व्रत आदि को ग्रहण करके भी पालते नही हैं, वे स्थापना श्रावक हैं। जो श्रावक के आचार से युक्त हैं, दान पूजन आदि करते हैं, वे द्रव्य श्रावक हैं। जो भाव से व्रतों से सम्पन्न हैं और श्रावकाचार के पालन में सदा जागरूक रहते हैं, वे भाव श्रावक हैं। नैष्ठिक श्रावकों की गणना भावश्रावकों में की गई है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि जब तक सम्यग्दर्शन प्रकट नही हुआ है, तब तक व्रतों का पालन करने वाला भी द्रव्य श्रावक ही है। भाव श्रावक तो नियम से सम्यग्दर्शन सम्पन्न ही होता है। पं. आशाधर जी ने जैनत्व के गुणों से रहित नाम मात्र के जैन को भी अजैन लोगों से श्रेष्ठ कहा है तथा नाम की अपेक्षा स्थापना जैन को, स्थापना जैन की अपेक्षा द्रव्य जैन को तथा उसकी भी अपेक्षा भाव जैन को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ महापुरुष कहा है। नैष्ठिक श्रावक की ग्यारह श्रेणियाँ - नैष्ठिक श्रावक की निचली दशा से क्रमशः ऊपर उठती हुई ग्यारह श्रेणियां होती है, जिन्हें चारित्र विषयक ग्रन्थों