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________________ अनेकान्त-56/1-2 है। उससे पूर्व सभी अशुद्धभाव में ही हैं। श्रेणी में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से शुद्धोपयोगी मुनि के भी कथञ्चित् परमभाव का अनुभव कहा जा सकता परन्तु छठे सातवे गुणस्थान तक तो शुभोपयोग ही है अतः यहाँ तक तो परमभाव का अनुभव है ही नहीं। आचार्य जयसेन स्वामी ने इसे सरल रूप से प्रस्तुत करते हुए कहा है कि शुद्ध निश्चयनय शुद्धता को प्राप्त हुए आत्मदर्शियों के द्वारा जानने/अनुभव करने योग्य है क्योंकि वह सोलहवानी स्वर्ण के समान अभेदरत्नत्रयस्वरूप समाधिकाल में प्रयोजनवान् है। समाधि रहित अशुद्धावस्था वालों को व्यवहारनय प्रयोजनवान् है जो लोग अशुद्धरूप शुभोपयोग में जो कि असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा तो सरागसम्यग्दृष्टि लक्ष्यवाला है और प्रमत्त अप्रमत्तसयत की अपेक्षा भेदरत्नत्रय लक्षण वाला है। अतः इनके व्यवहार प्रयोजनीभूत है। आगे 179,180 गाथाओं की टीका मे आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि जब यह ज्ञानी जीव शुद्धनय से च्युत हो जाता है तक उसके पूर्व बद्ध प्रत्यय पुद्गल कर्मो से बंध करा देते हैं। इनकी टीका करते हुए आचार्य जयसेन ने कहा है कि जब तक ज्ञानी जीव की भी परमसमाधि का अनुष्ठान नही हो पाता है, तब तक वह भी शुद्धात्मा के स्वरूप को देखने में जानने मे और वहाँ स्थिर रहने में असमर्थ होता है। समयसार तात्पर्यवृत्ति में मुख्य रूप से ज्ञानी सम्यग्दृष्टि सप्तम आदि अप्रमत्त गुणस्थानों में माना है किन्तु जह्मा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो अबंधगो भणिदो॥ समयसार 179।। आत्मा का ज्ञान गुण जब तक जघन्य अवस्था में रहता है अर्थात् स्पष्टतया यथाख्यात दहन को प्राप्त नहीं होता तब तक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अन्यपने को (निर्विकल्पता से सविकल्पता) प्राप्त होता रहता है, इसलिये उस समय वह नवीन बन्ध करने वाला भी होता है। इस गाथा की टीका में आचार्य जयसेन स्वामी ने स्पष्ट किया है कि मिथ्यादृष्टि के ज्ञान गुण से काललब्धि के द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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