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________________ अनेकान्त-56/1-2 11 पीठिका सामान्य रूप से गाथा में वर्णित विषय को स्फुट करने में समर्थ होती है। इनकी प्रत्येक गाथा को शब्दशः स्पष्ट करने की शैली महत्त्वपूर्ण है। आचार्यश्री अमृतचन्द्रसूरि ने गाथा को शब्दशः स्पष्टीकरण की शैली को नहीं अपनाया इसलिये उनके द्वारा लिखित 'आत्मख्याति' सर्वसामान्य को विषयबोध का माध्यम नहीं बन सकी। आचार्य जयसेन का पूर्ण प्रयास आचार्य अमृतचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत विषय की सगति रखने में रहा है। तथाहि (उदाहरणार्थ) पद के माध्यम से आचार्य अमृचन्द्र स्वामी के मन्तव्यो को समन्वित करते हुए गाथा की टीका पूर्ण करते हैं। साथ मे कभी कभी अत्राह शिष्यः परिहारम् आह आदि शब्दों के साथ नवीन विवेचनों को जोड़ देते हैं। आचार्य जयसेन स्वामी ने अनेक स्थलों पर आचार्य अमृतचन्द्रसूरि का सन्निकट रूप से अनुगमन भी किया है और सुबोध रूप से अधिक बार उनका निर्देश भी किया है। जैसा आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने "सुद्धो सुद्धोदेसो णायव्वो" इत्यादि गाथा की टीका में लिखा है "ये खलु पर्यन्तपाकोत्तीर्ण जात्यकार्तस्वरस्थानीयं परम भावमनुभवन्ति, तेषां प्रथमद्वितीयाद्यने - कपाकपरम्परपच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयपरमतापानुभवशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादशतया समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिवर्णिका स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान्।' अर्थात् जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध सोने के समान वस्तु के उत्कृष्ट असाधारण भाव का अनुभव करते हैं, उनको प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान (पकाये जाते हुए) अशुद्ध स्वर्ण के समान अपरमभाव का अर्थात् अनुत्कृष्ट मध्यम भाव का अनुभव नहीं होता। इस कारण शुद्ध द्रव्य का ही कहने वाला होने से जिसने अचलित अखण्ड एक स्वभावरूप एक भाव प्रकट किया है, ऐसा शुद्धनय ही उपरितन एक शुद्ध सुवर्णावस्था के समान जाना हुआ प्रयोजनवान है, परन्तु जो पुरुष प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध स्वर्ण के समान वस्तु के अनुत्कृष्ट मध्यय भाव का अनुभव करते है उनको अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान वस्तु के उत्कृष्ट भाव का अनुभव न होने से उस काल में जाना हुआ व्यवहारनय ही प्रयोजनवान् है। उक्त कथन से परमशुद्धभाव का अनुभव क्षीणमोही मुनि के घटित होता
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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