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________________ अनेकान्त-56/3-4 उद्दण्ड मनुष्य प्रेम से सुधर सकता है। जिस प्रकार बालक को प्रेम से सुधारा जा सकता है उसी प्रकार अपराधी मनुष्य को भी सुधारा जा सकता है। अहिंसक राजनीति मानव के हृदय में विश्व प्रेम की गंगा बहाती है। मानव को सन्मार्गी बनाती है। “जो राजा दुष्ट व मित्र सभी को निरपराध बनाने की इच्छा रखता है वह मध्यस्थ रह कर सब पर समान दृष्टि रखता है। इस संमजसत्व गुण से न्यायपूर्वक आजीविका करने वाले शिष्ट पुरुषों की रक्षा तथा अपराध करने वाले दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना चाहिये।"19 “प्रजा में कोई अपराध करता है तो उसके अनुरूप दण्ड देना चाहिये न कि कठोर दण्ड।" "कठोर दण्ड देने वाला राजा प्रजा को उद्विग्न कर देता है प्रजा ऐसे राजा को छोड़ देती है।"। “समस्त प्रजा को समान रूप से देखना चाहिये यह राजा का समंजसत्व गुण कहलाता है। दण्ड विधान में क्रूरता व घातकपना नहीं होना चाहिये न ही कठोर वचन बोलने चाहिये और न ही दण्ड की कठोरता ही होनी चाहिये। अपराधिक प्रवृत्ति वालों को दण्ड देने की व्यवस्था की गई जिसमें 'हा' 'मा' 'धिक' की उत्तरोत्तर कठोर दण्ड व्यवस्था थी। यह वाचनिक दण्ड विधान था। उस समय व्यक्ति इतने में ही अपना मरण समझता था। आज की दण्ड-संहिता अति कठोर है फिर भी वह मानव में सुधार नहीं ला पा रही है। भरत के समय में लोग अधिक अपराध करने लगे थे। तब वध, बंधन एवं शारीरिक बंधन की दण्डनीति भी चलायी गयी। “तत्राद्यै पंचमिनृणां कुलकुद्भिः कृतागसाम् हाकार लक्षणो दण्डः समवस्थापितस्तरा।" "हमाकारश्च दण्डोऽन्यैः, पंचमि संप्रवर्तितः पंचमिस्तु ततः शैषौर्धमाधिक्कार लक्षणः"24 "शरीर दण्डनं चैव वध, बन्धनादि लक्षणम् नृणां प्रबल दोषाणां भरतेन् निदोनितम्।"25
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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