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________________ 6 अनेकान्त-56/3-4 भरत के राज्य भार संभालते समय जिस कल्याणकारी राजनीति को समझाते हे और भरत प्रजा के हित को सर्वोपरि रख शासन करने की शपथ लेते हैं उस आधार पर यदि आज राज्य व्यवस्था कामय हो तो सर्वत्र सुख व शांति छा जाय और दुःख व अशांति के काले मेघ क्षत-विक्षत हो जायें । आदिपुराण में वर्णित राजनीति अहिंसा पर आधारित है। वहाँ प्रजा का हित ही राज्य का सर्वोपरि लक्ष्य है। भरत व ऋषभदेव ने बताया “स्वय जीवो और दूसरों को भी जीवित रहने दो”, “सबके जीवन जैसे सफल बने वैसे परस्पर सहायक बनो।" इस शिक्षा में समष्टि का हित गर्भित था । अतः आदिपुराण की राजनीति का प्रथम व सर्वोपरि उद्देश्य जनहित व प्रजापालन ( था। "प्रजानां हितकृद्भूत्वा भोग भूमि स्थिति च्युतौ, नाभिराजस्तादोद्भूतो भेजे कल्पतरू स्थितम्"" " जनहित प्रजानां जीवनोपायमननात्मनवो मताः "" प्रजा का हित चाहने वाले नाभिराय हुए इसीलिये वे कल्पवृक्ष की स्थिति को प्राप्त हुए अर्थात् वे कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे । वे प्रजा के जीवन का उपाय जानने से मनु कहलाये I राजा वृषभदेव ने प्रजा का कल्याण करने वाली आजीविका का उपाय सोचकर उसे बार-बार आश्वासन दिया कि तुम भयभीत मत होओ।' 1 इस प्रकार जनहित एवं सर्वोदयी भावना शासन-व्यवस्था का सर्वप्रथम लक्ष्य है। इसी कारण से राजा को न्याय प्रिय होना भी बहुत आवश्यक है राजा अनीति अथवा अन्याय का अवलम्बन न ले इसके लिये वह प्रतिबंधित था । यदि वह अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है या जनहित से भटक जाता है तो वह धर्मभ्रष्ट एव अन्यायी हो जाता है और राजा कहलाने के अयोग्य हो जाता है । भरत दिग्विजय करके राजाओं को शिक्षा देते हुए कहते हैं
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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