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________________ अनेकान्त-56/1-2 समन्वयवाणी (जयपुर), प्राकृत-विद्या का वैशालिक महावीर विशेषाक (दिल्ली) जैन बोधक, मराठी, (बम्बई) आदि में प्रकाशित हो चुके हैं, अतः उन्ही प्रमाणों को इस निबन्ध में भी प्रस्तुत करना पुनावृत्ति मात्र ही होगी। मेरी दृष्टि से यदि विद्वद्गण विदेह-देश तथा उसकी प्राच्यकालीन अवस्थिति पर बिना किसी पूर्वाग्रह के गम्भीतापूर्वक विचार कर लें तो सभी के समस्त भ्रम अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे। विदेह-कुण्डपुर या कुण्डलपुर के समर्थन में जैन-सन्देश (मथुरा) में अभी हाल में अ. भा. दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष श्रीमान् साहू रमेशचन्द जी (दिल्ली) ने विविध प्रमाणों के साथ अपने सुचिन्तित विचार प्रकाशित किये ही है। अतः यहाँ अधिक लिखना अनावश्यक मानता हूँ। कोई भी विचारशील व्यक्ति इसका विरोध कभी भी नहीं कर सकता कि किसी भी तीर्थभूमि का विकास न हो, या वहाँ पर कोई नया निर्माण कार्य न हो। वस्तुतः ये सब कार्य तो होने ही चाहिये किन्तु वहाँ के इतिहास को बदल कर नही तथा दूसरो को "अपराधी" जैसे असंवैधानिक शब्दो के प्रयोग करके नही। क्योंकि क्रोधावेश, पूर्वाग्रह पूर्वक एवं इतर-साक्ष्यो को बिना किसी परीक्षण के ही दोषपूर्ण कह देना ये निष्पक्ष-विचारको के लक्षण नहीं। आक्रोश दिखाने से इतिहास नहीं बनता, वह धनराशि की चमक दिखाने से भी नही बनता, पूर्वाचार्यो के कथन को तोड़-मरोड़कर नई-नई व्याख्याएँ करने से परम्परा एव इतिहास में विकृति आती है। बड़े-बड़े खर्चीले सुन्दर ट्रेक्ट्स तथा सचित्र कीमती पोस्टरों के प्रचार से भी इतिहास नही बनता, पूर्वाग्रहों से भी सर्वमान्य प्रामाणिक इतिहास नहीं बन सकता, वह तो बनता है दीर्घकालीन बहुआयामी तुलनात्मक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन से तथा समता वृत्ति पूर्वक सभी उपलब्ध साक्ष्यों के निष्पक्ष अध्ययन, मनन चिन्तन तथा लेखन से। -बी-5,40 सी सैक्टर 34 नोएडा-201301
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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