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अनेकान्त / 55/1
जीवन रक्षार्थ शरीर का भरण-पोषण करने के लिए आहार -पान आदि के निमित्त होने वाली हिंसा आरम्भी हिंसा है।
जो खेती व्यापार आदि जीविका के उचित उपायों को करने में होती है वह उद्योगी हिंसा है।
उन हिंसाओं से एक गृहस्थ किसी भी प्रकार नहीं बच सकता है परन्तु उसे विवेक पूर्वक ही कार्य करना चाहिए। विवेक पूर्वक कार्य करने से वह हिंसा से बच सकेगा और अहिंसा का पूर्ण पालन कर सकेगा वह जो भी कार्य करता है या करवाता है उसमें वह पूर्ण सावधानी रखता है कि किसी को कष्ट न हो, किसी की हिंसा न हो, किसी के प्रति अन्याय न हो। विवेक पूर्वक पूर्ण सावधानी रखने पर भी यदि किसी प्राणी की हिंसा हो जाय तो श्रावक के अहिंसा व्रत का भंग नहीं होता हैं। अहिंसा के अभाव में जीवन का अस्तित्व ही नहीं रहता ।
जिनेन्द्र वाणी से शाश्वत सिद्धान्त निकला है कि सभी जीव सुख चाहते हैं। जीना चाहते है। अतः किसी को भी दुःख देना और मारना अपना ही बुरा करना / कराना है। यदि कोई दूसरे को दुःख देता या मारता है, तो वह अपने को ही दुःख देता / मारता है।
प्राणिमात्र की रक्षा करना / अभय देना / सभी को समान देखना अहिंसा है किसी साहित्यकार ने अहिंसा को इन शब्दों में भी प्रस्तुत किया है, "अपने मन, वाणी व शरीर के द्वारा तथा असावधानी से किसी भी प्राणी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्रकार को कष्ट न पहुँचाना और इसी भावना के अनुरूप अपने नित्यकर्म बहुत सावधानी पूर्वक करना अहिंसा है। यह परिणामों को शुद्ध बनाने वाला रसायन है मर्यादा या व्रत का मुख्य द्वार है इसलिये आत्मकल्याणार्थी को अहिंसा आदि व्रतों में दृढ होते हुए संसारी पदार्थो से मोह ममता का त्याग कर मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए। यही जीवन में अहिंसा की व्यावहारिकता है।
1. अहिंसा भूतानां जगति विदितं बृहमपरमम्- बृहत्स्वयम्म्-स्तोत्र
2. अहिंसा परमो धर्म - महाभारत
- प्रवक्ता, दि. जैन कालेज, बड़ौत