SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त / 55/1 95/100, धर्मज्ञान 85/100 समाज सेवा 85 / 100 अंक देना चाहता हूँ, परन्तु खेद है कि उदारता के प्रश्नपत्र में बड़ी मुश्किल से 100 में से मात्र 10 नं. ही दे पा रहा हूँ। पण्डित जी की इस टिप्पणी से सेठ सा. आश्चर्य से स्तब्ध रहे, ऐसे स्पष्टवादी थे पं. श्री हीरालाल जी । 27 स्पष्टवादिता, स्वाभिमानिता उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था। तथापि वे पूर्ण व्यवहार कुशल एवम् सहयोगी स्वभाव के थे। आतिथ्य सत्कार में उनका आत्मीयता पूर्ण-स्नेह अतिथि आगन्तुक को अभिभूत कर देता था । सरस्वती भवन ब्यावर से त्यागपत्र देने के उपरान्त उज्जैन से ट्रस्ट के मन्मी ने मुझे चार्ज लेने भेजा, तब भवन की एक-एक पुस्तक एवं पुरामहत्त्व की वस्तुओं को जो कि उनहोंने बहुत संजोकर रखी थीं, मुझे संभलवाने में एक सप्ताह से अधिक समय लगा, इस पूर्ण अवधि में प्रतिदिन पण्डितजी ने स्वयं अपने पुत्र के साहाय्य से भोजन तैयार कर खिलाया जब तक वे ब्यावर में रहे उन्होंने मुझे व मेरे साथ गये पण्डित दयाचंद जी शास्त्री उज्जैन को अन्यत्र भोजन नहीं करने दिया। मुझे नीतिकार के वचन याद आये । वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि । लोकोत्तर चेतांसि को विज्ञातुमर्हति ॥ - प्रात:काल चार बजे शय्यात्याग देना एवं दैनिक कर्म से निवृत्त होकर प्रात: पाँच बजे से प्रारम्भ हो जाता था उनका महनीय ज्ञानाराधन का यज्ञ । प्रातः 7.00 बजे देवदर्शन के उपरान्त दुग्धसेवन पश्चात् पुनः वही ग्रन्थावलोकन, संशोधन, संपादन एवम् अनुवाद कार्य की साधना । अपराहन 1.00 घण्टे विश्राम पुनः ग्रन्थाध्ययन ! सायंकाल भोजन के पश्चात् भवन के चारों ओर परिक्रमा लगाते हुए स्तुतिपाठादि एवम् सायंकालीन भ्रमण ! एक काल में ज्ञानाराधन, देव - भक्ति एवम् शारीरिक स्वास्थ्य तीनों क्रियाओं को सम्पन्न कर अपने बहुमूल्य समय को बचाकर वे सरस्वती देवी की आराधना में लगाते थे । एक बार कोई व्यक्ति शंकाओं की सूची लेकर पण्डितजी के पास आये पण्डित जी ने बहुत कम समय में अर्थात् तीन-तीन चार-चार शंकाओं का समाधान ग्रन्थ के सन्दर्भेल्लेख मात्र द्वारा कर दिया, परन्तु वे सज्जन इतने मात्र से सन्तुष्ट नहीं थे, पण्डितजी ने स्पष्ट कह दिया पहिले आप स्वाध्याय करें
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy