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________________ 46 अनेकान्त-55/4 निर्ग्रन्थ - निसंग, निर्मानी, आशा से रहित, विरागी, निषी, निर्मोही और निरहंकारी प्राणी दैगम्बरी दीक्षा धारण करते हैं। भगवती आराधना में लिखा है गंथच्चाएण पुणो भावविसुद्धी वि दीविदा होइ। ण हु संगघटितबुद्धी संगे जहिदुं कुणदि बुद्धी॥ गा. 1174 निर्ग्रन्थता से उत्तरोत्तर परिणामों में निर्मलता की वृद्धि होती है। परिग्रहा-सक्त संग-त्याग में अक्षम होता है। सव्वस्थ होइ लहुगो रूवं विस्सासियं हवइ तस्स। गुरुगो हि संगसत्तो संकिज्जइ चावि सव्वत्थ॥ गा. 1176 ग्रंथहीन पुरुष चिन्ता रहित अर्थात् स्वरूप देखने मात्र से श्रद्धालु होते है और परिग्रह अविश्वास का कारण है क्योंकि शस्त्र, धन वगैरह छिपाने की मन में शंका होती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्ध। तं णिस्संगं साहुं परमट्ठवियाणया विति। समयसार, 131 जो साधु बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर अपने आप की आत्मा को दर्शन-ज्ञानोपयोग स्वरूप शुद्ध अनुभव करता है उसको परमार्थ स्वरूप के जानने वाले गणधरादि देव निर्ग्रन्थ साधु कहते हैं। तत्वार्थसूत्र में निर्ग्रन्थ के भेद बताते हुए लिखा है पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः॥ -तत्वार्थसूत्र 9/48 पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये निर्ग्रन्थ के पांच प्रकार हैं। निर्ग्रन्थ विशेषण भगवान् महावीर की अनासक्त साधना का स्पष्ट निदर्शन है। भव-भवान्तरों की यात्रा के प्रवाह के बाद शाश्वत सत्य को पाने की
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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