________________
अनेकान्त-55/4
45
आवुत्रौ नाठ्पुत्तो सव्वजु सव्वदस्सावी अपरिसेसंज्ञाणदस्सने परिजानाति। (मज्झिम निकाय PT.S. अ. 1 पृ. 93)
'निगंठो नाट्पुत्तो संघी चेव गणी च गणाचायो च ज्ञातोय सस्सी तित्थकरो साधु सम्मतो बहुत जनस्स स्तस्सू चिर-पव्वजितो अद्धगता क्यो अनुपत्ता' (दीघ निकाय PTS आ. 1 पृ.48-49)
त्रिपिटकों में निर्ग्रन्थ का उल्लेख बहुधा आया है। उसी आधार पर डा. याकोबी ने यह प्रमाणित किया है कि बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय विद्यमान था।
सूत्रकृताड़ के तुलनात्मक पाद टिप्पण में लिखा है कि माहण, समण, भिक्खु और निग्गंथ-ये चार मुनि जीवन की साधनायें हैं। चूर्णिकार ने समण, माहण और भिक्खु को एक भूमिका में माना है और निग्गंथ की दूसरी भूमिका स्वीकार की है। निर्ग्रन्थ की भूमिका का एक विशेषण है आत्म प्रवाद प्राप्त। चौदह पूर्वो में 'आत्मप्रवाद' नामक सातवां पूर्व है। जिसे आत्मप्रवाद पूर्व ज्ञात होता है वही निर्ग्रन्थ हो सकता है, माहण, श्रमण और भिक्षु के लिए इसका ज्ञात होना अनिवार्य नहीं है।
औपपातिक सूत्र में भगवान् महावीर के साधुओं को चार भूमिकाओं में विभक्त किया गया है। श्रमण, निर्ग्रन्थ, स्थविर और अनगार। वहाँ श्रमण सामान्य मुनि के रूप में प्रस्तुत है। निर्ग्रन्थ की भूमिका विशिष्ट है। उसमें विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट बल, विशिष्ट लब्धियां, विशिष्ट तपस्यायें और विशिष्ट साधना की प्रतिमायें उल्लिखित हैं। स्थिविर की भूमिका का मुनि राग द्वेष विजेता, आर्जव-मार्दव आदि विशिष्ट गुणों से सम्पन्न, आत्मदर्शी, स्वसमय तथा परसमय का ज्ञाता, विशिष्ट श्रुतज्ञानी और तत्व के प्रतिपादन में सक्षम होता है। अनगार की भूमिका का मुनि विशिष्ट साधन और सर्वथा अलिप्त होता है। बोधपाहुड में प्रव्रज्या धारक की विशेषताओं के बारे में लिखा है
णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिहोसा णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्ज एरिसा भणिया॥ गा. 49