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________________ अनेकान्त-55/4 37 शुद्ध होने से मोक्षमार्गी हैं और घोर चारित्र/तीव्र तपश्चरण के कारण पापरहित हैं जिससे स्वर्गादिक प्राप्त करती हैं (सूत्रपा. गा. 24-26)। यद्यपि आर्यिका का पंचम गुणस्थान (देश-विरत) होता है, फिर भी साधुओं के समान उनका आचार होता है। मात्र वे वृक्ष-मूल योग, आतापन योग, प्रतिमायोग, वर्षायोग तथा एकान्तवास आदि नहीं करती (मूलाचार गा. 157) इस कारण वे उपचार से महाव्रती कहीं जाती हैं। वे निरन्तर पढ़ने, पाठ करने, सुनने, कहने और अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में तथा तप, विनय और संयम में नित्य ही उद्यम करती हुई ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहती हैं (मूलावार 189)। "वंदामि' शब्द से उनकी विनय की जाती है। साधु आर्यिका कितने दूर-कितने पास : साधु और आर्यिका दोनों यद्यपि वीतराग-- मार्ग के पथिक हैं फिर भी काम-स्वभाव की दृष्टि से एक घी और दूसरा अग्नि के समान है। अत: इनके मध्य कितनी निकटता और कितनी दूरी हो इसका विशद वर्णन आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में और आचार्य शिवकोटि ने भगवती आराधना में किया है, जिसका संक्षिप्त सार निम्न प्रकार है :आचार्य एवं साधु से क्रमशः पांच और सात हाथ दूरी से वंदना पंच-छ: सत्त हत्थेसूरी अज्झावगो य साघू य परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति (मूला. 195) अर्थ - आर्यिकाएं आचार्य को पांच हाथ से, उपाध्याय को छह हाथ से ओर साधु को सात हाथ से दूर रहकर गवासन मुद्रा में ही वंदना करती हैं। स्पष्ट हे कि साधुओं को नारी/नारीवर्ग से सात हाथ की दूरी बनाये रखना चाहिये। एकान्त मिलन एवं वार्ता का निषेध अज्जागमणे काले ण अत्थिदव्वं तधेव एक्केण ताहिं पुण सल्लावो ण य कायव्वो अकजेण। तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु गणिणी पुरओ किच्चा जादि पुच्छइ तो कहेदव्वं। (मूला. गा. 177-178)
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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