SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 अनेकान्त - 55/4 हैं ( मूला. गाथा 970 ) | विनयसहित मुनि स्वाध्याय करते हुये पंचेन्द्रियों को संकुचित कर तीन गुप्ति युक्त एकाग्रमना हो जाते हैं। गणधरदेवादि ने कहा कि अंतरंग - बहिरंग बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के समान तप कर्म न हैं और न होगा ही। स्वाध्याय ही परम तप है (मूला. गा. 971-972 ) । जिस प्रकार धागा सहित सुई नष्ट नहीं होती, उसी प्रकार आगम ज्ञान सहित साधु प्रमाद दोष से भी नष्ट नहीं होता ( मूला. 973 ) । आगमहीन आचार्य अपने को और दूसरों को भी नष्ट करता है (मूला. 965 ) । साधु समभाव वाले होते हैं। शत्रु-मित्र, निंदा - प्रशंसा, लाभ-अलाभ और तृण- कंचन में उनका समभाव होता है (बोधपाहुड गाथा 49 ) । ऐसे विरक्त, निर्ममत्व, निरारम्भी, संयम, समिति, ध्यान एवं समाधि से युक्त ऋषि ही एक भवावतारी लौकान्तिक देव होते हैं (ति. प. महाधिकार आठ गा० 669-674 ) । 2 : ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक : जिनमत में दूसरा भेष ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक - ऐलक का होता है । इनके पास एक वस्त्र या कोपीन होता है। पात्र या कर - पात्र में भिक्षा- भोजन करते हैं। मौन या समिति वचन बोलते हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान संयुक्त हैं। ऐसे उत्कृष्ट श्रावक ऐलक - छुल्लक "इच्छाकार" करने योग्य हैं। " इच्छामि" या इच्छाकार का अर्थ अपने आपको अर्थात् आत्मा को चाहना है ( सूत्र पा. गा. (21,13-15), जिसे आत्म इष्ट नहीं उसे सिद्धि नहीं, अतः हे भव्य जीवो! आत्मा की श्रद्धा करो, इसका श्रद्धान करो और मन-वचन-काय से स्वरूप में रुचिकर, मोक्ष प्राप्त करो (सूत्रपा. 16 ) । 3: आर्यिका - नारीभेष : जिनमत का तीसरा जघन्य पद नारी का आर्यिका भेष है। आर्यिका एक वस्त्र धारण करती है और सवस्त्र दिन में एक बार भोजन करती है। छुल्लिका दो वस्त्र रखती है (सूत्रपा. गा. 22 ) । जिनमत में नग्नपना ही मोक्ष मार्ग है। वस्त्र धारण करने वाले मुक्त नहीं होते। नारी के अंगों में सूक्ष्म - काय, अगोचर सजीवों की उत्पत्ति होते रहने के कारण वे दीक्षा के अयोग्य हैं। चित्त की चंचलता के कारण उन्हें आत्मध्यान नहीं होता फिर भी जिन-मत की श्रद्धा से
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy