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________________ अनेकान्त-55/4 7 भूमितल पर बैठते हैं (गाथा 55 ) । आहारादि के प्रति साम्यभाव रखकर आहार के प्रसंग में उत्तम - मध्यम गृह एवं दरिद्र - धनी में भेद न करके परिषहसहन एवं कषायजय में रत रहने को सावधान किया गया है। उन्हें बालकवत् नग्न रूप को धारण कर शान्त, शस्त्रास्त्रहीन, उपशम, क्षमा, दम में निरत रहते हुए संयम, सम्यक्त्व एवं मूलगुणों तथा तप, व्रत एवं उत्तरगुणों के परिपालन का आदेश दिया गया है। (देखें जै. सि.को - 3, पृ. 527 ) प्रव्रज्या के योग्यायोग्य स्थान बोधपाहुड में दीक्षा के योग्य तथा दीक्षासहित मुनि के ठहरने योग्य स्थानों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सूना घर, वृक्ष का मूल उद्यान, श्मसान भूमि, पर्वत की गुफा, पर्वत की चोटी, भयानक वन और वसति ये दीक्षायोग्य स्थान हैं तथा दीक्षासहित मुनि के ठहरने योग्य स्थान हैं ( गाथा 41 ) । इसी प्रकार मूलाचार में भी कहा गया है गिरिकन्दरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं विरागबहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ । मूलाचार 10/59 अर्थात् गिरिकन्दराओं, श्मसान भूमि, शून्यागार, वृक्षमूल आदि वैराग्यवर्धक स्थानों पर श्रमण ठहरते हैं। इन विविक्त निकायों में ठहरने में हेतु का निर्देश करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि चूंकि कलह, व्यग्रता बढ़ाने वाले शब्द, संक्लेश भाव, मन की व्यग्रता, असंयत जनों का संसर्ग, स्वपर का भाव, ध्यान एवं अध्ययन में विघ्न आदि दोषों का सद्भाव इन विविक्त स्थानों में नही होता है, अतः ये श्रमण के ठहरने योग्य स्थान हैं। (भगवती आराधना 232 ) । ठहरने के अयोग्य स्थानों का मूलाचार में विस्तार से वर्णन हुआ है। जिन स्थानों में कषाय की उत्पत्ति, आदर का अभाव, इन्द्रियविषयों की अधिकता, स्त्रियों का बाहुल्य, दुःखों एवं उपसर्गों का बाहुल्य हो, वहाँ मुनि को नहीं ठहरना चाहिए। गायआदि तिर्यंचनी, कुशील स्त्री, सविकारिणी व्यन्तर आदि देवियाँ, असंयमी गृहस्थ के निवासों पर साधु को कदापि नही ठहरना चाहिए। अराजक या दुष्टराजक स्थान, जहाँ कोई प्रव्रज्या न लेता हो तथा जहाँ
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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