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________________ सप्त व्यसन का समाज पर दुष्प्रभाव -डॉ. ज्योति जैन भौतिकवाद की चकाचौंध और आधुनिकता के परिवेश में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समस्या से ग्रस्त अपने आप को तनाव, निराशा और अशांति से घिरा पाता है। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमें (स्टेप वाई स्टेप) व्यक्तियों की समस्याओं का निराकरण कर, उसे आत्म कल्याण की ओर अग्रसर होने एवं सुख शांति का अनुभव प्राप्त करने के लिये एक सुदृढ़ और सुव्यवस्थित आचार संहिता हमारे आचार्यों ने दी है। इसीशृंखला में धर्म हमें सबसे पहले पापों से परिचय कराता है क्योंकि जब तक व्यसनरूपी पाप नहीं हटेगे धर्म नहीं होगा। इसीलिये जैन दर्शन कर्मो की निर्जरा पर जोर देता है। आचार्य पद्मनंदी ने पंचविंशातिका में उन सप्त व्यसनों का परिचय कराया है जो जीवन में सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, यह पाप हैं, विष रूप है। ____ 21वीं सदी आते आते मानव अपने मानवीय आदर्श एवं संस्कार खोता जा रहा है और अशांति, हिंसा, लूटपाट, बलात्कार, आतंकवाद जैसी कुप्रवृतियां बढ़ती जा रही हैं। आपाधापी की यह अंधी दौड़ हमें कहां ले जायेगी पता नहीं। भौतिक सुख सुविधा ने मनुष्य को विलासी बना दिया है। पैसे को इतनी प्रतिष्ठा मिल गयी है कि सब पैसे को भगवान समझने लगे हैं इसी पैसे और विलासिता ने मनुष्य के विवेक पर परदा डालकर उसे व्यसनी बना दिया है। अतः आवश्यकता है कि हम विवेक को जागृत करें, आखें खोलें, संस्कार, शिक्षा और गुरु वाणी के माध्यम से धर्म के मार्ग को अपनायें। आज छोटे छोटे बच्चे संस्कार हीनता के कारण व्यसनयुक्त होते जा रहे हैं अतः परिवार का दायित्व विशेष रूप से मां का दायित्व अधिक बनता है कि उन्हें संस्कारित करे। आज बच्चों में जुआ रूपी विभिन्न प्रतियोगितायों की लत, अभक्ष्य पदार्थो का सेवन, झूठ, बेइमानी जैसी बुरी आदतें, नशीली चीजों का सेवन, उन्मुक्त
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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