SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 22 अनेकान्त/55/3 भी। इसीलिए पण्डितप्रवर आशाधर जी ने व्रत का स्वरूप कहते हुए लिखा है कि किन्हीं पदार्थों के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभ कर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है। अथवा पात्रदान आदि शुभ कर्मों में उसी प्रकार संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है। इस कथन में व्रत में पाप से निवृत्ति तथा शुभ में प्रवृत्ति दोनों स्वीकार की गई है। श्रावक के व्रत बारह प्रकार के कहे गये हैं- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । श्वेताम्बर परम्परा में पाँच अणुव्रतों को मूल व्रत तथा शेष सात को उत्तर व्रत कहा गया है। 14 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रावक के मूल गुणों में तथा व्रतों में पाँच अणुव्रतों का महत्त्व सर्वातिशायी है। यह श्रावक की एक आदर्श आचार संहिता है। अणुव्रत :- पञ्च पापों के एकदेश त्याग रूप पाँच व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। स्थूल हिंसा त्याग, मृषात्याग, अदत्तग्रहण त्याग, परस्त्री त्याग तथा बहुत आरंभ परिग्रह का परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं। अणुव्रत में अणु शब्द अल्पवाची है। जिसके व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं, वह अणुव्रत वाला अगारी कहलाता है। अगारी के पूर्ण हिंसादि पापों का त्याग संभव नही है, इसलिए उसके व्रत अल्प कहे जाते हैं। वह केवल त्रस हिंसा का त्यागी होता है, वह गृहविनाश आदि के कारणभूत असत्य वचन का त्यागी होता है, वह बिना दी गई वस्तु को ग्रहण नही करता है, परस्त्री के प्रति उसकी रति हट जाती है तथा वह धन-धान्यादि का स्वेच्छा से परिमाण करता है। 15 पाँचों पापों का उसका अल्प त्याग होता है, अतः वह अणुव्रती कहलाता है। अणुव्रतों की लघुता महाव्रतों की अपेक्षा कही गई है । अथवा सर्वविरत की • अपेक्षा कम गुण वालों के व्रतों को अणुव्रत कहा गया है। " 16 - अणुव्रत के भेद :- पाँच पापों से एकदेश विरक्ति रूप होने के कारण अणुव्रत के पाँच भेद हैं- अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अस्तेय या अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत ।
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy