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________________ 18 अनेकान्त/55/3 जो इस प्रकार चिन्तन में उद्यत होता है तथा 'इन्द्रिय विषय दोषों के मूल नहीं हैं' इस प्रकार का संकल्प करता है उसके मन में समता उत्पन्न होती है। उससे उसकी काय गुणों में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है। 7. अनावश्यक हिंसा की प्रवृत्ति पर संयम रखें। 8. अहिंसा का आराधक इन्द्रिय विषयों के प्रति विरक्त रहे। उनका वेदन-आस्वादन न करें। 9. अहिंसा का आराधक लोकैषणा न करे क्योंकि लोकैषणा से हिंसा में प्रवृत्ति होती है। 10. जीवन की सार्थकता के लिए अणुव्रत का परिपालन करें। 11. अहिंसा का आराधक व्यसन सेवन से बचे। 12. जीवन में प्रमाद-भाव का परित्याग करे। ____ आज के समाज की व्यथा की यदि किसी एक शब्द से व्याख्या हो सकती है तो वह है हिंसा। आणविक अस्त्रों का संत्रास, परिवेश के मिल जाने का भय, शक्तिशाली राष्ट्र एवं समाज द्वारा शोषण की पीड़ा, दरिद्रता, मानसिक-शारीरिक निर्बलता ये सब हिंसा को व्यक्त करती है और विश्व भयाक्रान्त है कि कहीं मनुष्य का अस्तित्व ही निकट भविष्य में न समाप्त हो जाये। इस विभीषिका का एक ही समाधान है और वह है- अहिंसा का सिद्धान्त। आचार धर्म का मूल अहिंसा है। समग्र आचार धर्म उसी सिद्धान्त के पल्लवन हैं। -विभागाध्यक्ष जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, (मान्य विश्व विद्यालय) लाडनूं (राजस्थान)-341306
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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