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________________ अनेकान्त/55/3 अनुमोदना से युक्त संरम्भ समारम्भ और आरम्भ को छोड़ने वाला अहिंसक होता है। 17 प्राणों के घात आदि में प्रमादयुक्त होकर जो प्रयत्न किया जाता है उसे संरम्भ कहते है । साध्यय हिंसा आदि क्रिया के साधनों का अभ्यास करना समारम्भ है। एकत्र किये गये हिंसा आदि साधनों का प्रथम प्रयोग आरम्भ है। क्रोध के आवेश से काय से करना, कराना और अनुमोदना करना इस तरह संरम्भ के तीन भेद हैं। इसी तरह मान माया व लोभ के आवेश से तीन तीन भेद होते है। वचन और काय के भी 36,36 भेद होने से 108 भेद होते है। अहिंसाव्रती के लिए जीवन निर्माण की दृष्टि से निम्न कर्तव्य हैं 1. जीवन को सादा बनाना और आवश्यकताओं को कम करना । 2. मानवीय वृत्ति में अज्ञान की चाहे जितनी गुंजाइश हो लेकिन पुरुषार्थ के अनुसार ज्ञान का भी स्थान है ही, इसलिए प्रतिक्षण सावधान रहना और कहीं भूल न हो जाय इसका ध्यान रखना और यदि भूल हो जाय तो वह ध्यान से ओझल न हो सके, ऐसी दृष्टि रखना । 3. आवश्यकताओं को कम करने और सावधान रहने का लक्ष्य रहने पर भी चित्त के मूल दोष जैसे स्थूल जीवन की तृष्णा और उसके कारण पैदा होने वाले दूसरे रागद्वेषादि दोषों को कम करने का सतत प्रयत्न करना। 4. सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखना। 5. आजीविका के निमित्त ऐसे व्यवसाय कार्य न करें जिसमें हिंसा होती है। 6. संकल्प पूर्वक किसी प्राणी को पीड़ा देने या वध न करने का नियम लेना । उत्तराध्ययन में लिखा है एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स । अतये य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसुतण्हा ॥ (उत्तराध्ययन 32 /107) अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं"
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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