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________________ अनेकान्त / 55/3 जैन मतानुसार जीव छह प्रकार के होते हैं जिन्हें षट्काय कहते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसंकाय जीवधारी होते हैं, इस बात को सामान्य तौर से सभी मत वाले मानते है, लेकिन पृथ्वी, अप्-अग्नि तथा वायु भी स्वतः प्राणवान् हैं ऐसा सिर्फ जैनधर्म ही मानता है। यह इसकी अपनी विशेषता है। इन षट्कायों की हिंसा विभिन्न कारणों से होती है जैसे पृथ्वीकाय की हिंसा पृथ्वी जोतने, तालाब, बावड़ी खुदवाने, महल बनवाने आदि से होती है। अप्काय की हिंसा स्नान करने, पानी पीने, कपड़े धोने आदि से होती है। भोजन पकाना, लकड़ी जलाना आदि से अग्निकाय की हिंसा होती है। सूप से अन्नादि साफ करना, ताल के पंख या मोरपंख से हवा करना आदि वायुकाय की हिंसा के कारण है। घर बनाना, बाड़ बनाना, विविध प्रकार के भवन बनाना, नौका, हल, शकट आदि बनाना वनस्पतिकाय की हिंसा के कारण है। इसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम के कारण विभिन्न त्रस प्राणियों की हिंसा होती है । प्रवचनसार में लिखा है कि यदाचारो समणो छस्सु वि कायेषु वधकरो ति मदो चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवतेवो ॥ 15 जिसके यत्नपूर्वक आचार क्रिया नहीं ऐसा जो मुनि वह छहों पृथ्वी आदि कार्यों में बन्ध का करने वाला है ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है । यदि यति सदा यत्नपूर्वक आचरण करता है तो वह मुनि जल में कमल की तरह कर्मबन्ध रूप लेप से रहित है। अहिंसा रक्षण के उपाय- अहिंसा रक्षण के उपायों की चर्चा करते हुए भगवती आराधना में लिखा है कि जं जीवणिकायवहेण विणा इंदयकयं सुहं णत्थ । तम्हि सुहे णिस्सगो तम्हा सो रक्खदि अहिंसा ॥ 816 जीव - हिंसा के अभाव में इन्द्रिय सुख की उपलब्धि (प्राप्ति) नहीं हो सकती है। स्त्री संभोग, वस्त्र धारण, पुष्पमालादि ग्रहण - धारणादि कार्य हिंसात्मक वृत्ति से ही होते हैं। इन पदार्थों की प्राप्ति करने में भी महान् आरम्भ करना
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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