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अनेकान्त/35/3
समस्त जीवों में दयाभाव रखना अनुकम्पा गुण है। व्यवहार में धर्म का लक्षण जीवरक्षा है। जीवरक्षा से सभी प्रकार के पापों का निरोध होता है। दया के समान कोई भी धर्म नहीं है। अतः पहले आत्मा स्वरूप को अवगत करना और तत्पश्चात् जीव-दया में प्रवृत्त होना धर्म है। जिस प्रकार हमें अपनी आत्मा प्रिय है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी प्रिय है। जो व्यवहार हमें अरुचिकर प्रतीत होता है, वह दूसरे प्राणियों को भी अरुचिकर प्रतीत होता है अतः समस्त परिस्थितियों में अपने को देखने से पापों का निरोध तो होता ही है, साथ ही अनुकम्पा की भी प्रवृत्ति जागृत होती है। अनुकम्पा या दया के आठ भेद हैं1.द्रव्य दया- अपने समान अन्य प्राणियों का भी पूरा ध्यान रखना और
उनके साथ अहिंसक व्यवहार करना। 2. भाव दया
अन्य प्राणियों को अशुभ कार्य करते हुए देखकर अनुकम्पा
बुद्धि से उपदेश देना। 3. स्वदया- आत्मालोचन करना एवं सम्यग्दर्शन धारण करने के लिए
प्रयासशील रहना और अपने भीतर रागादिक विकार उत्पन्न
न होने देना। 4. परदया- षट्काय के जीवों की रक्षा करना। 5. स्वरूपदया- सूक्ष्म विवेक द्वारा अपने स्वरूप का विचार करना, आत्मा
के ऊपर कर्मों का जो आवरण है उसे दूर करना 6. अनुबन्धदया- मित्रों, शिष्यों या अन्य प्राणियों को हित की प्रेरणा से
उपदेश देना तथा कुमार्ग से सुमार्ग पर लाना। 7. व्यवहार दया- उपयोग पूर्वक और विधि पूर्वक अन्य प्राणियों की
सुख-सुविधाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखना। 8. निश्चय दया- शुद्धोपयोग में एकता भाव और अभेद उपयोग का होना।
समस्त पर पदार्थो से उपयोग हटाकर आत्म परिणति में लीन होना निश्चय दया है।