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________________ अनेकान्त/55/3 की उपेक्षाकर परिग्रह में लीन रहकर आत्मदर्शन का प्रचार करने में लगे हुए हैं और लाखों दिगम्बर जैन चारित्र की उपेक्षाकर मात्र साम्बरत्व में आत्मदर्शन का यत्न करने में लगे हैं, जबकि कुन्दकुन्द की स्पष्ट घोषणा है कि परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स । ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि ॥ अर्थात् जिसके रागादि (राग, द्वेष, मोह) परमाणु मात्र भी विद्यमान है वह समस्त आगमों का धारी होने पर भी आत्मा को नहीं जानता है। यदि मूलाचार्य कुन्दकुन्द की इस घोषणा की उपेक्षा चलती रही तो कुछ काल बाद साम्बरत्व में आत्मादर्शन व मुक्ति होने तक की परिपाटी चल जाएगी जो दिगम्बरत्व के सिद्धांत के लिए घातक होगी। क्या दिगम्बरों को यह इष्ट है-परिग्रही को मुक्ति ? आचार्य देवसेन ने जो गाथा कही है हमने वह उद्धृत देखी है प्रयत्न करने पर भी अभी हमें मूल ग्रंथ प्राप्त नहीं हो पाया है, प्राप्त होने पर ही हमें मूलगाथा देखकर पता चलेगा कि वास्तविकता क्या है। उद्धृत प्राप्त गाथा से तो 'अभिधान राजेन्द्र कोष' सम्मत अर्थ की ही पुष्टि होती है। - वीर सेवा मंदिर 21, दरियागंज नई दिल्ली-110002 वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडामिणमो सुयकेवलीभणियं ॥ - समयसार का मंगलाचरण अर्थ- स्थिर, शाश्वत और अनुपम गति को प्राप्त करने वाले सब सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके मैं श्रुतकेवलियों के द्वारा कहे गये समयप्राभृत ( नामक ग्रन्थ) को कहूँगा ।
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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