SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/55/3 इसका अर्थ इस प्रकार है सीमा-मर्यादा, जो पूर्वपुरुषों तीर्थंकरों, गणधरादि श्रुतकेवलियों तथा निर्दोष चारित्रपालक आगमज्ञ परंपरित आचार्यों द्वारा स्थापित की गई है उसको धारण करते-कराते हैं स्वयं उसका लोप नहीं करते हैं और मर्यादा का पालन करने वाले हैं वे 'सीमंधर' कहलाते हैं। परमपूज्य स्वामी पद्मनन्दी (कुन्द - कुन्द) आचार्य ऐसे ही थे । कुन्दकुन्दाचार्य ने दिगम्बर की सीमा का विशद रूप में निर्धारण किया इसीलिए इन्हें 'मूलाचार्य' कहा गया और कालांतर में देवसेन जैसे मान्य आचार्य ने इन्हें गाथा. में 'सीमंधर' विशेषण से विभूषित किया। देवसेन जैसे महान् आचार्य जो सिद्धांत के ज्ञाता थे वे पद्मनन्दी आचार्य के विदेहक्षेत्रस्थ तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के समीप जाने की कल्पना कर सिद्धांत का विरोध क्यों करते? आचार्य देवसेन ने विदेह गमन की बात भी कहीं नहीं कही। वे जानते थे कि कथाऐं वे ही मान्य होतीं है जो सिद्धांत से अविरूद्ध और सिद्धान्त की पोषक हों। विदेह गमन की कथाओं में एकरूपता न होने और सिद्धांत विरोधी होने से वे मान्य कैसे हो सकतीं हैं? कुन्दकुन्द ने बारम्बार श्रुतकेवली के उपकार का स्मरण कर और कहीं एक बार भी सीमंधर का स्मरण न कर स्वयं यह स्पष्ट कर दिया है कि वे विदेह नहीं गए उनके गुरू श्रुतकेवली ही थे जिनसे उन्हें बोध प्राप्त हुआ। वे स्वयं भरत क्षेत्र के 'सीमंधर' थे अतः उनके विदेह जाने की कल्पना निराधार एवं आगम विरुद्ध है। हम निवेदन कर दें कि दिगम्बरत्व की सीमा (मर्यादा) का निर्धारण करने वाले सीमंधर कुन्दकुन्द हमारे मूल्ाचार्य हैं। उनमें हमारी दृढ़ आस्था है। हमें खेद है कि इस युग में अर्थ की प्रधानता ने लोगों पर ऐसा जादू डाला है कि कतिपय दिगम्बर जैन प्रमुख प्रखर वक्ता तक कुन्दकुन्द की जय बोलकर कुन्दकुन्द द्वारा घोषित नियमों की अवहेलना करने तक में प्रमुख बन रहे हैं, साधारण विद्वानों एवं अन्य श्रावकों की तो बिसात ही क्या? वे भी किन्हीं न किन्हीं भावों को संजोए उनके आगे पीछे चक्कर लगाने में व्यस्त दिखाई देते हैं। कुछ ऐसी हवा चल गई है कि लोग आत्मदर्शन के साधनभूत व्रत संगमादि
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy