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________________ अनेकान्त/54-2 concesscccccccccce आर्त्त और रौद्र दोनों ध्यान अनादि काल की वासना के कारण उत्पन्न होने वाले हैं। अत: स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं। मोक्षमार्गी को इनसे बचकर प्रशस्त ध्यान का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। प्रशस्त ध्यान परम साध्यभूत मोक्षप्राप्ति के लिए आचार्यों ने सद्ध्यान की प्रक्रिया का माध्यम स्वीकार किया है। मोक्षमार्ग ही जीव के लिए यथार्थसत्य है। सत्य का अन्वेषण सद्ध्यान ही से होता है। वस्तुत: आत्मतत्व ही परमसत्य की कोटि में आता है जो महामानव उस परम तत्व की खोज करना चाहते हैं, उन्हें नियम से सद्ध्यान का आश्रय लेना होगा। इसीलिए आदि पुराण में भी कहा है-“अध्यात्म के रूप को जानने वाला मुनि शून्य-गृह, श्मशान, जीर्णवन, नदीतट, पर्वत शिखर, गुहा, वृक्ष की कोटर अथवा अन्य मन्दिर आदि पवित्र और मनोहर प्रदेश में जहां शीत उष्ण की बाधा न हो, तेज वायु न चल रही हो, वर्षा न हो, सूक्ष्म जीवों का उपद्रव न हो, वहां पर्यक आसन बांधकर पृथ्वीतल पर विराजमान हो शरीर को सरल और निश्चल कर जिनमुद्रा में स्थिर कर, मन की स्वच्छन्दता को रोककर अपने अभ्यास के अनुसार मन को हृदय में, मस्तक पर अथवा अन्य किसी स्थान पर रखकर परीषह सहन करते हुए निराकुल भाव से जीवादि तत्वों के सम्यक्स्वरूप का चिन्तन में लीन होना श्रेयस्कर है।'' आदिपुराणकार का कहना है कि जो किसी एक ही वस्तु में परिणामों की स्थिर और प्रशंसनीय एकाग्रता होती है, उसे ही ध्यान कहते हैं, ऐसा ध्यान ही मुक्ति का कारण होता है वह धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान के भेद से दो प्रकार का होता है।" धर्म्य और शुक्ल को ही मुख्य रूप से ध्यान मानने का कारण आचार्य श्री वीरसेन स्वामी का "झाणं दुविहं धम्मज्झाणं सुकलज्झाणमिदि''34 कथन है। इन मोक्ष के साधन स्वरूप दोनों ध्यानों को मुख्य रूप से जानता है। अत: उन्हीं को कहा जा रहा है। धर्म्यध्यान "उत्तमक्षमादि धर्मादनपेतं धर्म्यम्' अर्थात् जो उत्तम क्षमा आदि धर्म से अनपेत-सहित हो, वह धर्म्य ध्यान है। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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