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________________ aaaaada अर्थ- सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण है यह जानकर गृहस्थ को यत्नपूर्वक पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिए। (VI) निदान - रहित उत्तमसंहननादिविशिष्टपुण्यरूपकर्मापि सिद्धगते. सहकारी कारणं भवति । (पंचास्ति. गाथा 85 की टीका तथा अ.स. पृ. 257 ) अनेकान्त / 54-2 अर्थ - तीर्थंकर प्रकृति, उत्तम सहनन आदि विशिष्ट पुण्यकर्म भी सिद्ध गति के लिए सहकारी कारण है। (see also प पु. 32/183, मूलाराधना 745, उ अ 155) (VII) शुभोपयोगः ग्रहिणां तु . क्रमत परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः । (प्रसा 45 अमृतचन्द्रीय टीका) अर्थ- शुभोपयोग गृहस्थ के क्रमश परम निर्वाण सौख्य का कारण होता है। (VIII) शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गी । स.सा. 145 आख्या. टीका तथा जयधवल 1 पृष्ठ-61 सार यह है कि निष्काम पुण्य (दान पूजादिक) तत्काल तो बन्ध का कारण होता है, परन्तु परिपाक (उदय) के काल में अत्यन्त निष्काम प्रशस्त परिणाम, उत्तम साधन, सत्संग आदि सिलसिलों को वह पुण्य प्रदान करता है। ये सभी कथचत् रत्नत्रय के हेतु होते हैं। तथा रत्नत्रय से मोक्ष होता है। यही "परम्परा" शब्द का रहस्य है। 14. कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह प्रस्तावना पृ. 98 तथा मुख्तार ग्रन्थ पृ. 1344 से 13521 (1) उदाहरण - प्रथम देशना लब्धि (व्यवहार) पश्चात् उपशम सम्यक्त्व ( निश्चय) होता है। (ii) पहले सुवर्ण पाषाण (व्यवहार) की प्राप्ति के बाद ही सुवर्ण ( निश्चय) प्राप्त किया जा सकता है। (III) वस्त्र त्याग के बाद ही सयम (भावलिंग) सम्भव है। निश्चय की प्राप्ति के पूर्व भी व्यवहार को शक्ति की अपेक्षा व्यवहार (साधन) पना है ही। इतना अवश्य है कि व्यवहार - अवलम्बन के काल में लक्ष्य निश्चय का ही होना चाहिए। 00000 ccccccccio
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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