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अनेकान्त/54-1 cococececececececececececececececaca
यकताँ हैं बेमिसाल हैं और लाजवाब हैं हश्ने सिफाते दहर में खुद इन्तख्वाब हैं। पीरी में भी नमूनये अहदे शबाब हैं
गोया कि कहान जी खुद आफ़ताब हैं। और इसी यकीन के चलते कहानजी भाई का स्वयम्भू भावी तीर्थकर बनने और उसके निमित्त मायाजाल बुनने का तारतम्य भी चलता रहा। कालक्रमानुसार जब वे जसलोक से विदा हुए तो उनकी नश्वर देह तक को भुनाने का स्वर्णपुरी के सम्बद्ध लोगों ने मौका नहीं गंवाया और तब तक उनकी अन्तिम क्रिया नहीं होने दी जब तक कि उनके दूरस्थ भक्त मुमुक्षगण उपस्थित नहीं हो गए। मुमुक्षुओं को अपने स्वयम्भू आफताब के इस प्रकार के बिछुड़ने का गहरा सदमा पहुँचा था, परन्तु अध्यात्म पर नजर रखने वाले मुमुक्षु भाईयों ने उन्हें पुनः स्थापित करने का बीड़ा उठाया और ‘सोनगढ़ मिशन' के रूप में सुनियोजित योजना के तहत कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। उस मिशन के सर्वाधिक जागरूक समर्पित प्रतिनिधि के रूप में डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल ने इसकी कमान संभाल ली। सत्ता की लड़ाई में, सोनगढ़ में जब उनकी दाल नहीं गली तो उन्होंने टोडरमल स्मारक जयपुर पर संतोष करना उचित समझा। शनैः शनैः उन्होंने प्रवचनकारों की टोलियाँ बनायीं, सस्ता साहित्य उपलब्ध कराया, मुमुक्षु स्वाध्याय मण्डलों का निर्माण कराकर समाज को खण्ड-खण्ड करने में भी उन्होंने अपनी शान समझी, परन्तु तीन-चार वर्ष पहले जयपुर में जब आचार्य विद्यासागरजी के शिष्य मुनिश्री सुधासागरजी का चातुर्मास हुआ तो उन्होंने कहानपंथ की स्वर्णिम काठ की हांडी का स्वरूप लोगों को दिखाया। अपनी विशिष्ट शैली और तत्त्व की गहराई को जब उन्होंने लोगों को समझाया तो सोनगढ़ मिशन की चूलें हिलने लगीं। परिणामस्वरूप यथावसर कूटनीति और राजनीति के माहिर समझे जाने वाले समर्पित प्रतिनिधि ने सशक्त आश्रय की तलाश प्रारम्भ कर दी। शीघ्र ही उनकी यह तलाश पूरी हुई और वे राष्ट्रसन्त आचार्यश्री विद्यानन्दजी के शरणागत हो गए। आचार्यश्री ने शरणागत की रक्षा को उचित समझा और अब वे शरणागत होकर ही अपनी गतिविधियों को सर-अंजाम दने में लगे हुए हैं।