SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/54-1 37 इसीलिए आचार्य इसकी भाषा को, इसकी कथा को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म-अर्थ तथा काम का कथन करना ही कथा का होना है। जिस भाषा में धर्म का विशेष निरूपण होता है, उसे बुद्धिमान् सत्कथा कहते हैं। धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत: धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करने वाली भाषा भी कथा की कोटि में आती है, पर वही अर्थ और काम को व्यक्त करने वाला भाषिक वर्णन यदि धर्मकथा से विमुख होता है तो विकथा की कोटि में आ जाता है। इसीलिए उनकी और मान्यता है कि जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्षादि की जिससे प्राप्ति होती है, वास्तव में वही धर्म है और उससे सम्बन्ध रखने वाली जो कथा है वही सद्धर्भकथा है और वही सम्यक् भाषा। यथा - पुरुषार्थोपयोगित्वात्रिवर्गकथनं कथा। तत्रापि सत्कथां धामामनन्ति मनीषिणः॥1/118॥ तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा कथा। अन्यथा विकथैवासावपुण्यास्त्रवकारणम्॥1/119॥ यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थसंसिद्धिरंजसा। सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता।।1/120॥ वे आगे और कहते हैं कि वक्ता को भाषा का प्रयोग करते समय वे ही वचन बोलने चाहिए जो हितकारी हों, प्रिय हों, धर्मोन्मख हो और हों यशस्कर भी। प्रसंग आने पर भी अधर्मसम्मत और अपयशकारक वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। भाषिक प्रयोग में कितने सजग हैं आचार्य। यथा - हितं यान्मितं ब्रूयाद् ब्रूयाद् धर्म्य यशस्करम्। प्रसङ्गादपि न ब्रूयादधर्म्यमयशस्करम्॥1/133॥ धर्म के महत्त्व को बताते हुए आचार्य कहते हैं कि धर्म से इच्छानुसार सम्पत्ति मिलती है और उससे ही इच्छानुसार सुख की प्राप्ति होती है और उमसे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं, इसलिए यह परम्परा केवल धर्म से ही संचालित है। राजसम्पदायें भोग-उपभोग, उत्तम कुल में जन्म, सुन्दरता
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy