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अनेकान्त/54-1
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आदिपुराण की सम्पूर्ण भाषा को देखें तो अनेकत्र लगता है कि यह केवल कविता भर नहीं है, यह शास्त्र है यथा-कालद्रव्य का वर्णन देखिए, कोई व्यंग्य नहीं, सीधे सिद्धान्त रख रहे हैं आचार्य -
अनादिनिधनः कालो वर्त्तनालक्षणो मतः। लोकमात्रः सुसूक्ष्माणुपरिच्छिन्नप्रमाणकः।।3/2।। सोऽसंख्येयोऽप्यनन्तस्य वस्तुराशेरुपग्रहे। वर्त्तते स्वगतानन्तसामर्थ्यपरिबंहितः।।3/3।। यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेर्हेतुरधश्शिला। तथा कालः पदार्थानां वर्त्तनोपग्रहं मतः॥3/4॥
आदिपुराण में विज्ञानवाद, शून्यवाद, भूतवाद आदि के खण्डन-मण्डन की भाषा यद्यपि छंदोबद्ध है पर बराबर लगता है कि शास्त्रार्थ की भाषा है क्योंकि इसमें शास्त्रार्थ के तर्को की तरह तीक्ष्णता है और वह निरन्तर परमतों को पोषित करने वाली भाषा का या प्रकारान्तर से परमतों का खण्डन करती है, इसलिए इसे या यूँ कहें आदिपुराण की सम्पूर्ण भाषा को कविता की भाषा या कविता भर नहीं माना जाना चाहिए; बल्कि इसे कुछ और-और मानना चाहिए या फिर इसके ऐसे स्थलों को कहना चाहिए शास्त्रों का शास्त्र और ऐसे स्थलों की भाषा को भी शास्त्रों के शास्त्र की भाषा (Meta-language) मानना चाहिए क्योंकि इसमें शास्त्र-जैसा गाम्भीर्य है, पर वैसी दुरूहता नहीं। इसी प्रसंग में काल के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य निरूपित करते हैं कि यह व्यवहार काल वर्तना लक्षण रूप निश्चय काल द्रव्य के द्वारा ही प्रवर्तित होता है और वह भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान् रूप होकर संसार का व्यवहार चलाने के लिए कल्पित किया जाता है। यथा
वर्तितो द्रव्यकालेन वर्त्तनालक्षणेन यः। कालः पूर्वापरीभूतो व्यवहाराय कल्प्यते।।3/11॥ समयावलिकोच्छ्वास-नालिकादिप्रभेदतः। ज्योतिश्चक्रभ्रमायत्तं कालचक्रं विदुर्बुधाः।3/12।। भवायुष्कायकर्मादिस्थितिसंकलनात्मकः। सोऽनन्तसमयस्तस्य परिवत्तोऽप्यनन्तधा।।3/13॥