________________
34
अनेकान्त/54-1 cecececececececececececececosocorose
कितनी सरल और सहज भाषा है, पर भक्तिरस से सराबोर।
प्रभु की सभा लगी हुई है, चूँकि प्रभु मोक्षमार्गगामी हैं इसलिए अलौकिक हैं और इसलिए उनकी सभा रूप समवसरण भी अलौकिक है। समवसरण में जो पशु बैठे हैं वे धन्य हैं, उनका शरीर मीठी घास के कारण अन्यन्त पुष्ट हो रहा है, ये दुष्ट पशुओं द्वारा होने वाली पीड़ा को भी जानते ही नहीं। पादप्रक्षालन करने से इधर-उधर फैले हुए कमण्डलु के जल से पवित्र हुए ये हिरणों के बच्चे इस तरह बढ़ रहे हैं मानों अमृत पीकर ही बढ़ रहे हों। इस ओर ये हथिनियाँ सिंह के बच्चों को अपना दूध पिला रही हैं और ये हाथी के बच्चे स्वेच्छा से सिंहिनी के स्तनों का स्पर्श कर रहे हैं-दूध पी रहे हैं। अहो! बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन हिरणों को बोलना भी नहीं आता, वे भी मुनियों के समान भगवान् के चरणकमलों की छाया का आश्रय ले रहे हैं। जिनकी छालों को कोई छील नहीं सका है तथा जो पुष्प और फलों से शोभायमान हैं, ऐसे सब ओर लगे हुए ये वन के वृक्ष ऐसे मालूम होते हैं मानों धर्मरूपी बगीचे के ही वृक्ष हों। ये फूली हुई और भ्रमरों से घिरी हुई वनलताएँ कितनी सुन्दर हैं? ये सब न्यायवान् राजा की प्रजा की तरह कर-बाधा (हाथ से फल-फूल आदि तोड़ने का दु:ख, पक्ष में टैक्स का दु:ख) को तो जानती ही नहीं हैं। यथा
पादप्रधावनोत्सृष्टैः कमण्डलुजलैरिमे। अमृतैरिव बर्द्धन्ते मृगशावाः पवित्रताः।।2/12॥ सिंहस्तनन्धयानत्र करिष्यः पाययन्त्यमूः। सिंहधेनुस्तनं स्वैरं स्पृशन्ति कलभा इमे।।2/13॥ अहो परममाश्चर्यं यदवाचोऽप्यमी मृगाः। भजन्ति भगवत्पादच्छायां मुनिगण इव।।2/14॥ अकत्तवल्कलाश्चामी प्रसनफलशालिनः। धर्मारामतरूयन्ते परितो वनपादपाः।।2/15॥ इमा वनलता रम्याः प्रफुल्ला भ्रमरैर्वृताः। न विदुः करसंबाधां राजन्वत्य इव प्रजाः।।2/16॥ श्लेष को व्यक्त करती महाकवि की भाषा कितनी सहज है।