________________
128
अनेकान्त/54/3-4
वस्तुतः भारतीय संस्कृति जिसका प्रारम्भ आदितीर्थ ऋषभदेव ने किया था और जिसका सामाजिक, राजनैतिक दीर्घकालीन प्रभाव आज भी दिखाई देता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों षट्कर्मव्यवस्था में अनुस्यूत है। सर्वसाधारण जो निवृति मार्ग का पूर्णतः पालन नही कर सकते उनके लिए अहिंसक जीवन यापन मार्ग प्रदर्शक की भूमिका का निर्वाह करें तो समाज व देश में सुव्यवस्था का निर्माण हो सकता है। आज जबकि सारा विश्व परमाणु बमों की परिधि में और आतंक के साये में है। आवश्यकता इस बात की है कि परस्पर वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृति छोड़कर सर्वसमभाव और वात्सल्य भाव को प्राथामिकता प्रदान की जाय इससे न केवल समान का हित होगा वरन् देश का हित भी साघन होगा।
1. असिमषि: कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च। कर्माणीमानि षोढ़ा स्युः प्रजाजीवन हेतवः।। आदिपुराण 16-179
तत्रासिकर्मसेवायां मषिर्लिपि विधौस्मृता। कृषिभूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्त्रोपजीवने।। वाणिज्यं वणिजाकर्म शिल्पा स्यात् करकौशलम्।
तच्च चित्र कलापत्रच्छेदादि-बहुधा स्मृतम्।। 181-182 आO पु0 2. न्यायोपात्त धनोः यजन् गुणगुरुन्सद्गी स्त्रिवर्ग भज:
न्नन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिसीस्थानालयो हीमयः। युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञोवशी
श्रृण्वन् धर्मविधिं दयालुरधमी: सागारधर्मचरेत्।। 3. द्रव्याय व्ययादि लेखन निपुण मषीकर्मा:-रा. बा. 36 4. मिथ्योपदेश रहोभ्याख्यान कूटलेखक्रिया न्यासापाहार साकार
मन्त्रभेदा:-तत्वार्थसूत्र -7.26 5. हल कुलि दन्तालकादिकृष्युपकरण विधान विद कृषिवला कृषिकर्मा: _ -रा. वा. -3-36
6. कर्मास्त्रेिघा सावद्यकार्या, अल्पसावद्यकार्या, असावद्यकार्यापूचेति। सावद्य कार्याः षोढ़ा-असि-मसि-कृषि-विद्या-शिल्पवणिक्कर्मभेदात्।।-रा. वा. -3-36