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अनेकान्त/54/3-4
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अनेकांतवाद का मर्म
-कैलाश बाजपेयी इंद्रभूतिगणधर ने भगवान महावीर से प्रश्न किया:'तत्त्व क्या है? भगवान ने उत्तर दिया- 'यही कि पदार्थ उत्पन्न होता है। इंद्रभूति- 'भंते! पदार्थ यदि उत्पत्तिधर्मा है तो वह लोक में समाएगा कैसे? भगवान- ‘पदार्थ नष्ट होता है।'
इंद्रभूति- 'पदार्थ विनाश धर्मा है तो वह उत्पन्न होगा और नष्ट हो जाएगा, तब फिर शेष क्या रहेगा?'
भगवान-- ‘पदार्थ ध्रुव है।'
इंद्रभृति- 'भगवान! जो उत्पाद व्ययधर्मा है वह ध्रुव कैसे होगा? क्या उत्पाद, व्यय और ध्रुवता में विरोधाभास नहीं है?'
भगवान-- यह विरोधाभास नहीं, सापेक्ष दृष्टिकोण है।
कुटिया में अंधेरा था। दीप जला कि प्रकाश हो गया। वह बुझा कि फिर अंधेरा हो गया। प्रकाश और अंधकार पर्याय हैं। इसका परिवर्तन होता रहता है। परमाणु ध्रुव हैं। उनका अस्तित्व तामस और तेजस दोनों पर्यायों में अखंड है और अबाध रहता है।
इसे भगवान महावीर की त्रिपादी की त्रिपथगा कहते हैं। दर्शन के इतिहास में, जैन चिंतन शैली को अनेकांतवाद नाम से जाना जाता है जिसका प्रतिपादन जैनाचार्य स्याद्वाद नाम से करते हैं। यह तो सभी मानेंगे कि ज्ञान अपरिमित है मगर ज्ञान को वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान अनंत, ज्ञेय भी अनंत, मगर वाणी सांत! हम जो कह पाते हैं वह परिमित है फिर उसे जो सुनने वाला है यह बिल्कुल आवश्यक नहीं कि वह उतना ही जानकार हो। हमारे आसपास यह जो कुतर्क और तर्क के बीच घमासान है उसका कारण