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अनेकान्त/54/3-4
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आदि। तीन इन्द्रिय के स्पर्शन, रसना और घ्राणेन्द्रियां होती हैं जैसे पिपीलका आदि। चार इन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन्द्रिय होती है जैसे भ्रमर आदि। पंचेन्द्रिय के भी दो भेद हैं, संज्ञी और असंज्ञी। मनसहित मानव, पशु, देव, नारकी संज्ञी हैं।” मनरहित तिर्यंच जाति के जलचर, सर्प आदि असंज्ञी हैं।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है जैन दर्शन में व्यापक रूप से जीव द्रव्य का आख्यान किया गया है जब कि अन्य दर्शनों में एक-एक अंश का अवलम्बन किया गया है। प्रस्तुत लेख में जीव-द्रव्य की महत्ता को बतलाते हुए जैन दर्शन में इसके स्वतन्त्र अस्तित्व और बहु-व्यापकता पर संक्षिप्त प्रकाश मात्र डाला गया है। 1. "दर्शनानि षडेवात्रमूलभेदापेक्षया
बौद्ध नैयायिक सांख्य, जैनं वैशेषिकं तथा।
जैमिनीयं च नामानि, दर्शनानामभूत्यहो।।", षड्दर्शनसमुच्चय, 3 2. "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्, तत्वार्थसूत्र. 5/30 3. “गुणपर्ययवद्रव्यम्" वही. 5/38 4. "जीवापोग्गल काया धम्माधम्मा य काल आयासं।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणगुणपज्जएहिं संजुत्ता।।", नियमसार, गा.9 5. "जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होई।
पाणुवओगी दुविहो सहावणाणं विभावणाणत्ति।।" वही, गा. 13 6. वही, 11-12 7. नियमसार, 13-14 8. "जीवो णाणसहावो जह अग्गी उह्वो सहावेण।
अत्यंतरभूदेण हि णाणेण ण सो हवे णाणी।।" कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 178 9. समयसार, 49 10. “सर्वव्यापिनमात्मानम्" श्वेता., 1/16 11. “अंगुष्ठमात्रपुरुषः।", वही, 3/13 12. कठोपनिषद् 9/2/20 13. सांख्यकारिका, 17-19 14. "संसारिणोमुक्ताश्च", तत्वार्थसूत्र, 10