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अनेकान्त/54-1
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शील को धारण करने वाले जो भी पुरुष इस सिद्ध शिला से सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, उनकी हर बार-बार वन्दना करते हैं।
तभी देवों ने कहा - शिलायामिह ये सिद्धा ये चानये हतकिल्विषाः। ये विघ्न सूदना सर्वे भवन्तु तव मंगलम्॥ -211
इस शिला से जो सिद्ध हुए हैं तथा अन्य जिन पुरुषों ने पाप कर्म नष्ट किए हैं वे सब विघ्नसूदन तुम्हारा मंगल करें।
तब लक्ष्मण ने उस शिला को हिला दिया। वे फिर किष्किधा आए और कहते रहे कि -
सा निर्वाणशिला येन चालयिता समुद्धृता। उत्सादयत्यं क्षिप्रं रावणं नात्र संशयः॥ -222 जिसने उस निर्वाण शिला को चलाकर उठा लिया ऐसा वह (लक्ष्मण) शीघ्र ही रावण को मारेगा इसमें संशय नहीं है।
हरिवंश पुराण में सर्ग 5/347- 348 में पाण्डुक, पाण्डुकम्बला, रक्ता व रक्तकम्बला ये चार शिलाएं बताई हैं जो अर्द्धचन्द्राकार हैं। तो फिर सिद्धशिला (?) भी वैसी ही होगी।
पाण्डुक शिला के बारे में वीर वर्धमान चरित अधिकार 8/118-119 में कहा भी है कि वह पाण्डुक शिला अर्द्धचन्द्राकार है और ईषत्प्राग्भार आठवीं पृथ्वी के समान शोभती है। 2. मनीषी रतनलाल बैनाड़ा के द्वारा दिए गये उद्धरणों को भी यदि गौर से पढ़ा जाए तो जाहिर होता है कि त्रिलोकसार (गाथा 557) के अनुसार उर्ध्व लोक के अन्त में ईपत्प्राग्भार आठवीं पृथ्वी है -
तम्मझे रुप्यमयं छत्रायारं मणस्स महिवासं। सिद्धक्खेत्तं मझडवेहं कमहीण बेहुलिय।। -557 उत्ताण ट्ठियमंते पत्तं व तणु तदवरि तणु वादे। अट्ठगुणड्ढाः सिद्धा तिष्ठिन्ति अणंत सुहतित्ता।।