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अनेकान्त /54/3-4
रात्रि - भोजन पाप है
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- डॉ. सुषमा अरोरा
प्राचीन भारतीय परम्परा में हितायु और सुखायु से सम्पन्न दीर्घायुष्य की कामना सदा की गयी है। वैदिक परम्परा में दीर्घ जीवन के साथ अदीन रहने की कामना भी निरन्तर की गयी है। दैन्यरहित जीवन जीने के लिए स्वास्थ्य का सर्वाधिक महत्त्व है । चरक के अनुसार स्वास्थ्य में हानि का कारण मुख्यतः तृष्णा, प्रज्ञापराध एवं आहार-विहार की अनियमितता है और वहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि प्रज्ञापराध से बचकर तथा नियमित आहार-1 र-विहार करके ही मनुष्य आरोग्य को प्राप्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी समुचित आहार-विहार एवं सुप्रज्ञता से प्रसूत प्रशस्त कर्मों के द्वारा मनुष्य दुःखों से मुक्त होता है, ऐसा स्वीकार किया गया है। जैन परम्परा में भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय को सुखायुष्य और हितायुष्य के लिए ही नहीं, कैवल्य की प्राप्ति के लिए भी आवश्यक माना गया है, जिसका प्रतिफलन युक्त आहार-विहार के रूप में ही होता है और उसका ही अति प्रशस्त रूप विविध व्रतों के रूप में सम्यक् चारित्र में परिगणित है।
जैन परम्परा में सम्यक् चारित्र की प्रतिष्ठा हेतु जिन अनेक व्रतों की चर्चा हुई है. उनमें पाँच अणुव्रत या महाव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ ग्यारह प्रतिमाओं का भी उल्लेख हुआ है, जो व्रतों से बहुत दूर नहीं है। जैन आचार्यों में कुछ ने ग्यारह प्रतिमाओं के अन्तर्गत और कुछ ने महाव्रतों के साथ रात्रि - भोजन के त्याग को भी अनिवार्य व्रत के रूप में स्वीकार किया है। रात्रि भोजन - त्याग के मूल में अनेक दृष्टियाँ विद्यमान हैं, जिनमें अहिंसा महाव्रत अथवा अणुव्रत के समग्र निर्वाह के साथ-साथ स्वास्थ्य-रक्षा भी अन्यतम है। चिकित्साशास्त्र के अनेक ग्रन्थों में सूर्यास्त से पूर्व भोजन की प्रशंसा की गयी है। स्वास्थ्य-रक्षा के लिए आवश्यक मानकर ही कनाडा जैसे कुछ सुविकसित देशों में सायंकाल छः बजे अनिवार्य रूप से सायंकालीन भोजन ले लेने की परम्परा प्रचलित है। ग्रहण किये गये आहार के