SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/54/3-4 6. भक्त सर्वत्र मिल जायेंगे। सन्दर्भ 1. डॉ. प्रेमसागर जैन, जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, पृ. 29। 2. प्रभावक चरितं के अन्तर्गत मानतुंगसूरिचरितम्, पृ. 112-117 (संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान पृ. 500)। 3. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, द्वितीय खंड पृष्ठ 268। 4. वही पृ. 268। 5. भक्तामर चरित्र की उत्थानिका में शुभचन्द्र और भर्तृहरि की एक लंबी कथा दी है यह कथा ज्ञानार्णव के प्रारंभ में प्रकाशित हुई है (देखे-जैन साहित्य और इतिहास, पं. नाथूराम प्रेमी, पृ. 440)। इस कथा का संकेत संस्कृत के प्रसिद्ध काव्य शास्त्री आचार्य मम्मट के 'काव्य प्रकाश' में भी पाया जाता है। प्रथम उल्लास में काव्य के प्रयोजन बतलाते हुये 'शिवेतरक्षतये' के उदाहरण में लिखा है-'आदित्यादेर्मयूरादीना- मिवानर्थनिवारणम्' अर्थात् जैसे सूर्य शतक से मयूर के अनर्थ का निवारण हुआ था वैसे ही काव्य से अनर्थ का निवारण होता है। व्याख्या ग्रन्थों में बाणभट्ट को बहनोई और मयूरभट्ट को साला बतलाया गया है। मयूरभट्ट को सूर्य शतक की रचना करते हुये दिखाया गया है। (देखें-'काव्यप्रकाश' ज्ञानमण्डल लि. वाराणसी प्रथम उल्लास)। 7. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर पृ. 214-215। 8. महापुराण (आदिपुराण) अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य पृ. 221 9. देखें-जैन साहित्य और इतिहास पृ. 451 पर प्रेमी जी का नोट। 10. जैन निबंध रत्नावली, श्री मिलाप चन्द कटारिया पृ. 3421 11. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग 3, पृ. 208।
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy